पुलवामा में सीआरपीएफ दस्ते पर फिदायीन हमले के बाद सरकार फिर जागी है। एक्शन मोड में फिलहाल पाकिस्तान से मोस्ट फेवर्ड नेशन का दर्जा वापस लेने का फैसला हुआ है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने शुक्रवार को झांसी की जनसभा में आतंकियों, उनके आकाओं और पड़ोसी देश पाकिस्तान के खिलाफ सख्त लहजे में पेश आने का देश को भरोसा दिलाया है। राहत की बात है कि विपक्ष भी एकजुट है। जैश-ए-मोहम्मद आतंकी संगठन की कायराना हरकत से पूरा देश गुस्से में है। हर तरफ से माकूल जवाब की मांग उठ रही है। यही ठीक है कि वक्त सवाल उठाने का नहीं है, मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान पर पूरी तरह से भरोसा जाताते हुए साथ खड़े होने का है।।
पर कुछ बातें हैं, जिस पर ध्यान स्वतः चला जाता है। आतंकी हमलों का इतिहास देखें तो कुछ बातें एक सी ही हैं। मसलन किसी बड़े हमले की सूचना पहले से होती है। ऐसे किसी कायराना हरकत को अंजाम तक पहुंचाने में कुछ इलाकाई लोगों की संलिप्तता होती है और यह भी अनुभव में आता है कि सियासी जगत से जुड़े कुछ लोगों की भी अप्रत्यक्ष रूप से शह होती है। इसके अलावा जो सबसे चिंतनीय पहलू है वह यह है कि बौद्धिक जमात से भी कुछ लोग मानवता की आड़ में आतंकियों पर सेना की कार्रवाई को दूसरे ढंग से पेश करते हैं। इन सबके बीच देश के भीतर बार-बार यह सवाल उठता है कि आतंकियों के नेटवर्क में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से शामिल सारे लोगों पर निर्णायक कार्रवाई क्यों नहीं होती, मसलन हुर्रियत कांग्रेस है इसके आकाओं को सरकार सुरक्षा और वीजा उपलब्ध कराती है।
सालाना करोड़ों रुपये खर्च होते हैं जबकि इनकी जुबान देश के लिए आग ही उगलती है। वह कौन सी मजबूरी है कि जानते हुए भी अब तक सरकारें अलगाववादी जमातों पर कार्रवाही नहीं कर पाई बल्कि जनता के पैसे लुटाती रहीं। 2014 में मोदी सरकार से उम्मीदें बंधी थी कि आतंकवाद के मामले में पूरी तरह से सख्ती दिखेगी पर ऐसा नहीं होता दिखा। ठीक है सर्जिकल स्ट्राइक हुई और उससे लगा कि बड़े हमले पाक समर्थित आंतकवादी नेटवर्क को तबाह करते रहेंगे। पर रूटीन में तो पहले जैसी कार्रवाई होती रही लेकिन नीतिगत तारतम्यता का बार-बार अभाव अभाव सैन्य अभियानों और विदेश नीति में भी देखने को मिला। पाकिस्तान से दोस्ती की तमाम कोशिशें अब तक फेल होती आई हैं।
इमरान खान की सरपस्ती में तो वैसे भी किस बदलाव की उम्मीद ना थी और पुलवामा पहले पर उनकी तरफ से आयी ठंडी प्रतिक्रिया इसकी बानगी है। चीन भी जैस-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अजहर पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाये जाने के विरोध में खड़ा है। पाकिस्तान में चीन अपने सरोकार हैं। इससे साफ है कि दशकों से चली आ रही समस्या के समाधान के लिए भारत सरकार को अपने कई सारे वाजिब कदम उठाने होंगे। सीमा पार से आये आंतकियों को शरण देने वालों पर कार्रवाई करनी होगी और जम्मू कश्मीर के उस राजनीतिक वर्ग पर भी सख्त रुख दिखाना पड़ेगा जो गाहे बगाहे पाकिस्तान के लिए बैटिंग करते रहते हैं। आतंकी फंडिग के स्त्रोत को बंद करना पड़ेगा।