गीत की भी जाति बना डाली

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सुबह जब उठे तो विविध भारती पर फिल्म बैजू बावरा का प्रसिद्ध गीत बज रहा था- मन तड़पत हरि दरसन को आजज्। गीत-संगीत सुनकर हम भगवान पर कोई एहसान नहीं लादते कि वह इसके बदले में हमें स्वर्ग के सुख प्रदान करे। बल्कि हम तो उसके आभारी हैं। उसने हमें गीत -संगीत सुनने की समझ, समय और सुविधा प्रदान की। लोग हैं कि जोड़-तोड़ में ही जिंदगी ज़ाया कर देते हैं। वास्तव में गीत में बड़ा मज़ा आ रहा था। पत्नी से ट्रांजिस्टर का वोल्यूम तेज़ करने को कह दिया और आंखें मूंदे सुन रहे थे कि तोताराम ने हमें झक झोरा, बोला- क्यों अधर्म कमा रहा है? हमें बहुत बुरा लगा, कहा- इतना मधुर संगीत, इतने भावपूर्ण शब्द और तुझे इसमें अधर्म लग रहा है। यही है बुद्धि भ्रष्ट होने का पहला लक्षण। बोला- तुझे पता है इसे किसने लिखा है? हमने कहा- शकील बदायूंनी ने।

मोहम्मद रफी ने भी क्या डूबकर गाया है और नौशाद का संगीत तो वाह, क्या बात है ! बोला- क्या बात नहीं। तीनों तरह से सत्यानाश। सब के सब क्लेच्छ, मुसलमान। कहीं भी तो भगवान, भक्ति और भारत नहीं। हमने कहा- भक्ति, भगवान और भारत क्या किसी विशेष प्रकार की भाषा, धर्म और जाति में है? तुलसी बाबा ने तो साफ कहा है- जाति-पांति पूछे नहिं कोई। हरि को भजे सो हरि का होई। बोला- इस भ्रम में मत रह जाना। सब हिंदुओ की तरह सीधे नहीं होते। ये मुसलमान लोग बड़े चालाक होते हैं। राधा- कृष्ण, राम, आदि के बहाने हमारे धर्म में घुसपैठ करके उसे भ्रष्ट कर देते हैं। रहीम, कबीर, रसखान, जायसी और अब यह बदरुद्दीन। हमने पूछा- कौन है यह ? बोला- था एक मुसलमान।

वास्तव में तो नाम था फखरुद्दीन सिद्दीकी लेकिन लोगों को चकमा देने के लिए बदरीनाथ धाम की सीढिय़ों पर बैठने लगा और चुपके से खुद को बदरुद्दीन कहने लगा मतलब कि बदरीनाथ प्रभु की कृपा से प्राप्त हुआ जैसे रामदीन- राम द्वारा दिया गया। अपने समकालीन किसी श्री धान सिंह बर्थवाल द्वारा लिखी गई बदरीनाथ जी की आरती चुराकर अपने नाम से प्रचारित करवा दी। भाजपा सरकार के विशेषज्ञों ने हिंदू आरती की कार्बन डेटिंग करके सच ढूंढ निकाला और बर्थवाल वाली हिंदू आरती को मान्यता भी दे दी है। हमने कहा- किसी की भी हो लेकिन है बहुत बढिय़ा। ‘पवन मंद सुगंध शीतलज्’ बिल्कुल ‘राम चन्द्र कृपालु भज मन’ का वाला मजा आता है।क्या अब इस आरती को बदल देंगे ? बोला- आरती को तो नहीं बदला जाएगा क्योंकि इससे बढिय़ा कोई आरती मिल ही नहीं रही है।

इसी को धनसिंह बर्थवाल द्वारा रचित-प्रचारित किया जाएगा। हमने कहा- इससे क्या फर्क पड़ेगा ? बोला- फर्क पड़ेगा। हिन्दू द्वारा लिखित, हिंदू द्वारा उच्चरित और हिंदू भगवान को निवेदित आरती की बात ही कुछ और होती है। अरबी-फारसी में गाई गई आरती को क्या पता भगवान समझे या नहीं। जैसे कि वन्दे मातरम और सूर्य नमस्कार को खुदा नहीं समझता। ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ तो ठीक है लेकिन शायर का नाम ध्यान में आते ही जोश कम हो जाता है। हमने कहा- हिंदू धर्म की पवित्रता की रक्षा के लिए अब तो कम से कम अगले पांच साल में सारे काम छोडक़र सबसे पहले देश के सभी मंदिरों में गाए जाने वाले भजन-आरती के रचनाकरों, संगीतकारों के ही नहीं बल्कि मंदिरों में लगी निर्माण-सामग्री, घंटे-घडिय़ाल, पुष्प- अगरबत्ती, प्रसाद और मंदिरों के आसपास लगे पेड़ों, उन पर बैठने वाले पक्षियों आदि तक के जाति-धर्म तय किए जाएं।

रमेश जोशी
(लेखक वरि ष्ठ व्यंगकार हैं , ये उनके निजी विचार हैं )

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