सन 1925 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने भारतीय राजीति के साम्प्रदायिकता के प्रभाव का वर्णन करते हुए प्रसिद्ध साहित्याकर बनारसी दास चतुर्वेदी को एक पत्र लिखा था। पत्र में उनका कहना था कि देश की वर्तमान राजनीति धर्म और जाति आधारित हो गई है, वह विभिन्न सम्प्रदायों के मध्य स्पष्ट विभाजन की दीवार खड़ी करती है। देश में हिन्दू-मुस्लिम समस्या राजनीतिक है। इसका संबंध सामाजिक कारणों से नहीं हैं। इसके साथ उन्होंने नजप्रतिनिधियों के व्यवहार पर भी टिप्पणी करते हुए लिखा कि जो चुनाव में जीत जाता है। वह देश तथा समाज के लिए कार्य नहीं करता। श्री विद्यार्थी के ये विचार नौ दशक पूर्ण होने के पश्चात भी समसायिक हैं। वर्तमान राजनीति व्यवस्था तथा चुनाव प्रणाली का सारतत्व राष्ट्रनीति पर आधारित न होकर सामाजिक विभाजन नीति पर आधारित हो गया है। चुनाव आते ही जातिगत मोर्चाबंदी का दौर आरम्भ हो जाता है। समाज के शाश्वत स्वरूप को संकीर्णताओं में विभाजित करने के लिए अप्राकृतिक दीवारों से घिरे दुर्गों का निर्माण कर दिया जाता है।
यही कारण है कि चुनाव से समय वास्तिवक जनादेश प्रकट नहीं हो पता। स्वतंत्रता की सत्तर दशकीय यात्रा में समाज उन बाधाओं को दूर करने में असफल रहा है। जिन दोषों के कारण, देश ने लगभग दस शताब्दियों तक विनाश को देखा है। जातीय भावनाओं का इतना कठोर दुर्ग कि विदेशी आक्रांताओं से लड़ने के लिए विशेष जाति का दायित्व समझकर पूरा देश खंडित होती भारतीयता के अवशेषों को देखकर केवल विलाप करता रहा। वर्तमान राजनीति ने श्री विद्यार्थी की चेतावनी को नहीं समझा। देश वही खड़ा है जहां गजनवी अफगानिस्तान की पहाड़ियों से चलकर अपने सात हजार सैनिकों के साथ सोमनाथ मंदिर को लूटने वापस चला जाता है, रास्ते में उसको रोकने वाला कोई नहीं होता। ऐसे ऐतिहासिक प्रकरणों से यह सिद्ध होता है कि जातीयता का अहंकार और भ्रमित भावना राष्ट्रीयता पर भारी पड़ती रही और देश लुटता रहा। तब ही श्री विद्यार्थी लिखते हैं कि धर्म जाति की पहचान बनाए रखने का अहंकार देश के सामने संकट पैदा करता है। श्रीविद्यार्थी राजनीति में धर्म के प्रवेश के प्रबल विरोधी थे। वैसे वे सार्वजनिक जीवन में गांधीजी से प्रभावित होकर ही आए थे, लेकिन वे एक मात्र एसे विचार तथा पत्रकार थे जिन्होंने गांधी जी के खिलाफत आंदोलन का जमकर विरोध किया था।
सन 1919 से 1922 तक चले इस आंदोलन के बारे में वे लिखते हैं कि वह दिन देश के लिए सबसे दुर्भाग्य का दिन था जिस दिन स्वतंत्रता के पवित्र आंदोलन में मुल्लाओं, मौलवियों और धर्माचायों को शामिल किया गया था। उनका मानना था कि खिलाफत आंदोलन स्वतंत्रता की दिशा में किए जाने वाले प्रयासों को बाधित करना है और सम्प्रदायिकता को प्रोत्साहिक करता है। वास्तविकता यह है कि यह आंदोलन आएंगे। प्रथम विश्व के पश्चात तुर्की के हटाए गए खलीफा को पुनः सत्तासीन करने के लिए था, इसका संबंध दूर तक भारतीय राष्ट्रीयता से नहीं था। गांधीजी का यह आंदोलन असफल रहा। पर इस आंदोलन के असफल होने के बाद भारत भर में साम्प्रदायिक उपद्रव होने आरम्भ हो गए, हजारों निर्दोषों को मार दिया गया, केरल का मोपला उपद्रव भारतीय इतिहास का सबसे दुखद पक्ष है। श्री विद्यर्थी पहले ही चेतावनी दे चुके थे कि राजननीति में धर्म को शामिल करने से उत्तम परिणाम सामने नहीं आएंगे।
धर्म के विषय में श्री विद्यार्थी की दृष्टि प्रचलित अर्थ से पृथक थी, वे कर्मकांड को धर्म नहीं मानते थे, उनके अनुसार व्यक्ति का उदार व्यवहार, संवेदनशील चितंन, लोकसभा के लिए सतत सक्रियताएं मानव मूल्यों के प्रति परम आस्था धर्म है। श्री विद्यार्थी का एक प्रसिद्ध कथन है कि मैं उस व्यक्ति को धार्मिक नहीं मानता जो अनुशासनहीन, आमानवीय व्यवहार करने वाला, देश-समाज के लिए अपने दायित्व को न समझने वाला और उसके भीतर न्याय भावना का अभाव हो, भले ही वह नित ईश्वरीय उपासना में न लगा हो, मेरे लिए वह नास्तिक अधिक धार्मिक है जिसका अतंरुमन पवित्र और लोकसेवा के लिए समर्पित है। श्री विद्यार्थी अति आस्थावान व्यक्ति थे, उनका जन्म एक प्रखर सनातनी परिवार में हुआ था। लेकिन वे अपने निजीत्व को सार्वजनिक जीवन में नहीं लाना चाहते थे। बीसवी शाताब्दी के प्रारम्भ में ही देश में एक ऐसी वैचारिक धारा भी बहने लगी थी, जो भारत को हिन्दू राष्ट के रूप में देखना चाहती थी।
श्री विद्यार्थी भारत के बहु आस्था चरित्र पर विशेष आस्था को थोपने के पक्ष में नहीं थे, इस कारण वे भारत के पहले ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने अपने समाचार पत्र के माध्यम से धर्मतंत्र का सत्तातंत्र पर नियंत्रण का विरोध किया। इस संदर्भ में 21 जून 1915 को प्रताभ में प्रकाशित उनका लेख देखा जा सकता है। वे लिखते है कि समाजिक तथा राजनीतिक क्षेत्रों में रोज ऐसी बातें सामने आ रही हैं जो मूर्खतापूर्ण हैं। राष्ट्र की परिभाषा को समझने की गलती की जा रही है। हिन्दू राष्ट्र-हिन्दू चिल्लाने वाले भारी भूल कर रहे हैं। हमें ऐसे मार्ग पर नहीं चलना चाहिए जो गलत हो, अपने इस देश में वे मुस्लिमों को भी सलाह देते हैं कि भारत ही उनका देश है। जो लोग तुर्की, मक्का-काबुल या जद्दा का स्वप्न देखते हैं, वे गलती कर रहे हैं।
बीसवीं शताब्दी के आरंभिक पूर्वाद्ध में पत्रकारिता में विकृतियां आनी आरंभ हो गई थी। वे पत्रकारिता में बाजारवाद के खतरे की आशंका हो गई थीं। वे पत्रकारिता में बाजारवाद के खतरे की आशंका से भयभीत थे, उनकी दृष्टि में पत्रकारिता धन कमाने का साधन नहीं है। यह एक वैचारिक अभियान है और समाज के दलित-दमित वर्ग के प्रवक्ता के रूप में पत्रकारिता को कार्य करना चाहिए। उन्होंने इस बात की आलोचना की वर्तमान समाचार पत्रों में वैचारिक तथा समाज सुधार भाव का अभाव है वे पाठक का मनोरंजन करा रहे हैं, लेकिन विचार नहीं दे रहे। यदि हम इस कथन को वर्तमान संदर्भों मे देखते हैं तो ऐसा लगता है कि यह विचार समसामयिक पत्रकारिता में आए दोष के लिए लिखा गया है। यह सत्य है कि वे पत्रकारिता के पितामह रहे हैं। उनके विचारों को पत्रकारिता के सिद्धान्त मान लिए गए। उनका कहना था कि कोई समाचार केवल इसलिए प्रकाशनयोग्य नहीं हो सकता कि उसके प्रमाण हैं। प्रमाण समाचार का मूल्य तय नहीं करते। समाचार का मूल्य इस अनुमान में निहित है कि यदि यह प्रकाशित हो जाता है तो समाज पर इसका प्रभाव क्या होगा। इसलिए प्रमाण के साथ परिणामों को देखना प्रथम वरीयता में रखा जाना चाहिए। वे किसी पर लगे आरोप को समाचर नहीं मानते थे। उनका कहना था कि पत्रकार आरोप को नहीं आरोपी के पक्ष को अधिक महत्व दे।
आज की भ्रमित होती पत्रकारिता में श्री विद्यार्थी का यह विचार क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकता है। प. मदन मोहन मानलीय श्री विद्यार्थी के विचारों तथा साहित्य कौशल का सम्मान करते थे। इस नाते उन्होंने अपने समाचार पत्र अभ्युदय्य का सम्पादन कार्य सौंप दिया। निश्चित ही श्री विद्यार्थी भारत के महान विचारक, दूरदृष्टा, समाज सुधारक तथा देशभक्त थे 25 मार्च 1931 को साम्प्रदायिकता को समाप्त करने के अपने प्रयासों के महायज्ञ में अपनी पूर्णाहुति दे दी। यदि गहनता से देखा जाए तो श्री विद्यार्थी की मृत्यु से देश को सर्वाधिक हानि हुई है, यदि वे होते तो देश विभिन्न समस्याओं के क्रूर घेरों में न आता। सुभारती विश्वविद्यालय उनका अनन्त सम्मान करता है सार्वजनिक तथा निजी जीवन में पवित्रता और मानव सेवा के भाग जाग्रत करने के लिए पत्रकारिता विभाग का नाकरण उनके नाम पर किया गया ताकि जो कलमजीवी इस संस्था से निकल कर व्यावसायिक जीवन में प्रवेश करें तो पत्रकारिता की शुचिता को कामय रखें। विचारों तथा कर्म के इस महानायक को सुभारती परिवार का कोटिश।।
डॉ अतुल कृष्ण
राष्ट्रीय संयोजक, उन्मुक्त भारत
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