क्यों चाहिए सूचना का अधिकार?

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एक पूर्व सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने सांसदों से अपील की है। उनके अनुसार यदि संसद में सूचना अधिकार (संशोधन) बिल 2019 पास हुआ तो खराब होगा। केंद्रीय सूचना आयुक्त, सूचना आयुक्त और राज्यों के सूचना आयुक्त अभी मुख्य चुनाव आयुक्त, चुनाव आयुक्तों की तरह वाली व्यवस्था, अधिकार, आजादी लिए हुए हैं वे संशोधन से खत्म होंगे और केंद्र सरकार याकि कार्यपालिका, अफसरशाही के नियंत्रण में सब कुछ होगा। आचार्युलु का तर्क है कि सूचना कानून नागरिक अधिकारों के लिए अधिक जरूरी है। इसलिए कि नागरिक को वैधानिक तरीके से सूचना मिलेगी तभी तो वह आगे सरकार की गलत नीतियों की आलोचना कर सकेगा। राजकाज की सही जानकारी से ही सार्वजनिक डिलीवरी सिस्टम के भ्रष्टाचार का खुलासा संभव है।

ऐसा कहना या सोचना बड़ी बातें और सभ्य समाज की लोकतांत्रिक सोच। मगर भारत के संदर्भ में अपने को अब इसलिए बेतुकी लगती है कि भला भारत का नागरिक क्या इस लायक है जो उसे इस तरह के अधिकार हों? पूर्व केंद्रीय सूचना आयुक्त ने सूचना अधिकार कानून याकि आरटीआई के मामले में मोदी सरकार की गलत नीयत की बात कही। उन्हें चिंता है कि इस तरह के संशोधनों से अफसरशाही व राजकाज से जवाब लेने के नागरिक अधिकार पंगु और लचर होंगे।

लेकिन जब नागरिक चेतना ही भेड़ समाज वाली है, भेड़धसान की है तो फालतू क्यों चिंता हो कि भेड़ों के सूचना अधिकार न छीनें जाएं! भला नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार से बेहतर कौन यह जान सकता है कि भारत के बहुसंख्यक लोगों और खास कर हिंदुओं को क्या चाहिए? ये लोग हैं क्या जो इन्हें सूचना अधिकार की जरूरत है? जब बाड़ा ही भेड़-बकरियों का है तो भेड़ें क्यों जानें कि उनके गड़ेरिए उन्हें कैसे हांकते हैं? कैसे उनके दाना-पानी का प्रबंध करते हैं। भेड़ें मौन रहती हैं, बुद्धिहीन होती हैं सो, उन्हें मौन ही, बिना सूचना के ही रहना चाहिए। गड़ेरिए जैसा कहें वैसे भेड़ें चरें और बाड़े में संतोष के साथ जीवन जीये। मतलब अच्छा है जो मोदी सरकार भेड़ों में अराजकता बनवाने वाले, आजाद ख्याल बनवाने वाले सूचना अधिकार जैसे कानूनों को घटा कर उसे गड़ेरियों के रहमोकरम पर रख रही हैं।

सचमुच आज सोचें तो पंडित नेहरू से ले कर अटल बिहारी वाजपेयी, डॉ. मनमोहन सिंह सब नासमझ थे, जिन्होंने भारत के लोगों को इंसान मान कर उन्हे सशक्त, इम्पॉवर करने के कानून बनाए। उनके लिए चेक-बैलेंस की व्यवस्थाएं और संस्थाएं बनवाईं। पूर्व प्रधानमंत्रियों की महा मूर्खता थी जो आजादी के बाद राजे-रजवाड़ों-विदेशियों की हाकिमशाही में जी रहे दासों, भेड़ों के गुलामी वाले डीएनए को बदलवाने के लिए वे व्यवस्थाएं बनवाईं, जिससे शोषण, धोखे और माई बाप बन कर गड़ेरियावाद का तंत्र मनचाहा नहीं कर सके। भारत के संविधान निर्माताओं ने गलत सोचा कि भेड़ें बोलने लगें। दहाड़ने लगें। अभिव्यक्ति की आजादी के कानून से, मीडिया, सूचना अधिकार आदि के जरिए भेड़ें यह हिम्मत पाएं जो वे गड़ेरियों से जवाब मांगने लगें!

सोचें, पंडित नेहरू से ले कर डॉ. मनमोहन सिंह आदि सरकारें कितनी गलत थीं, जिन्होंने भारत की जनता को गुलामी, भक्ति, अंधविश्वासों, मूर्खताओं से बाहर निकालने के नाम पर लोकतंत्र बनवाने, उसके लिए प्रेस को आजाद बनाने, जजों को शेर खान बनाने, संस्थाएं बना कर उन्हें काम करने के कैसे-कैसे अधिकार दिए। नेहरू कितने मूर्ख थे जो भेड़-बकरी वाले इस देश में दुनिया के बाकी नवोदित अफ्रीकी-एशियाई देशों की तरह तानाशाही वाली व्यवस्था भारत में नहीं बनवाई और भेड़ों को लोकतंत्र में जीने की मृग-मरीचिका में फंसाया।

और उफ! डॉ. मनमोहन सिंह की गलती! भेड़ों को यह अधिकार भी दे डाला कि वे गड़ेरियों से जवाब तलब करें कि बताओ तुमने कैसे फलां फैसला किया? कैसे राज किया? फिर उस अधिकार में अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग व्यवस्थाएं बनने दीं।

भला ऐसी मूर्खता को नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार कैसे बनाए रख सकती है? फिर यों भी मोदी और मोदी सरकार ने समझा हुआ है कि भेड़ चाल में रहना ही भारत के लोगों की सहज, नैसर्गिक इतिहासजन्य तासीर है। भेड़ों को अधिकार नहीं, उन्मुक्तता नहीं, बुद्धि नहीं, विचारशीलता नहीं चाहिए, उसे तो सिर्फ संतोष चाहिए। सुरक्षा चाहिए। जब भेड़ों की पूर्ण सर्वमान्यता से मोदीजी का राज्याभिषेक हुआ है तो यह अब उनका कर्तव्य है कि वह बाड़े में लोकतंत्र के नाम पर अराजकता नहीं रहने दें। सब भेड़ों को बाड़ों के घेरों की अनुशासनात्मक व्यवस्था में जब रखना है तो वे बातें, ऐसे अधिकार रहने ही क्यों दिए जाए जिससे भेड़ें इधर-उधर भागें, उच्छशृंखल हों और गड़ेरियों को सींग मारने जैसी आत्महत्या प्रवृति लिए हुए हों।

हां, मोदी-शाह अपने दिल पर हाथ रख विचारें कि सूचना अधिकार हो ही क्यों? अखबार और मीडिया की जरूरत क्या है? राज्य-केंद्र की संघीय व्यवस्था में क्यों गड़ेरियों के अधिकार बंटें? संस्थाओं की जरूरत क्यों? मतलब दिल-दिमाग में मोदी-शाह यदि इन सबकी जरूरत नहीं मानते हैं तो उन्हे तुरंत यह अध्यादेश ले आना चाहिए कि आज से सूचना कानून, अभिव्यक्ति आजादी, मीडिया याकि भेड़ों के उछलने, सोचने, सूचना लेने-देने की व्यवस्था पर ताला।

मैं इसके समर्थन में मोदीजी के लिए ताली बजाऊंगा। आखिर मोदीजी ने हिंदुओं की बुनावट जान ली है तो उस माफिक उन्हें वह सब करना चाहिए, जिससे उन्हें राजकाज में सौ फिसदी स्वतंत्रता-निश्चिंतता मिले। उनका ध्येय, प्रथम लक्ष्य भेड़ों की बेसिक जरूरत याकि बाड़े में सुकून और सुरक्षा बनवाना है। भेड़ें सुकून, सुरक्षा में दाना-पानी पाती रहें यहीं तो सबका साथ-सबका विकास है। इसके लिए जरूरी है कि भेड़ें इधर-उधर की बातों, लालच में न भटकें,। न उपद्रव करें, न अराजक बनें, न सवाल करें और न सूचना पाएं, न सोचें और न विचारें!

तभी आज के मोदी युग में सोचें तो क्या लगेगा नहीं कि पंडित नेहरू से ले कर मनमोहन सिंह के सफर का सारांश भटकाव है! भेड़ों में बना खौफ, असुरक्षा है। आरटीआई-मीडिया के ब्लेकमेलरों, जजों की मनमानी, संस्थाओं में जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली अराजकता है। इस सबका अहसास कराते हुए मोदी-शाह ने वोट मांगा और वे छप्पर फाड़ जीते हैं तो हिसाब से मोदी सरकार को संसद में संशोधनों से काम नहीं करना चाहिए, बल्कि संसद में सीधे एक लिस्ट पेश कर उन तमाम कानूनों को वैसे ही खत्म कर देना चाहिए जैसे अंग्रेजों के वक्त के पुराने कानूनों को खत्म करने का काम होता है। सूचना कानून सिरे से खत्म हो तो मीडिया को बंद करने याकि भेड़ों के सशक्तिकरण की कोशिश के 72 सालों में जितने कानून बने हैं उन सबको एक झटके में खत्म कर देना चाहिए। जान लें हिंदू चूं नहीं करेगा। उलटे वह मोदी-शाह के लिए तालियां बजाएगा। भेड़ें किलकारी मारती हुई छप्पन इंची छाती की वंदना में उछलेंगी-कूदेंगी।

तभी पूर्व सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु की अपील पर गौर नहीं होना चाहिए। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार जो कर रही है उसी के लायक हैं भेड़ें। न भेड़ों को लोकतंत्र और अधिकारों की अराजकता चाहिए और न नरेंद्र मोदी को पंडित नेहरू, वाजपेयी या डॉ. मनमोहन सिंह जैसा इतिहास बनाना है। उन जैसी गलतियां मोदी नहीं करेंगे। वे ऐसे चक्रवर्ती राजा हैं और होंगे जिनसे दुनिया जानेगी कि भारत वहीं तो है जिसके लोग हजार साल भेड़ माफिक जीये तो 21वीं सदी में भी एक वह राजा हुआ जिसने आधुनिक प्रयोगशालाओं के प्रयोगों से भेड़ों का क्लोन समाज बना वह कमाल किया जिससे संतोष-सुरक्षा के बाड़े बने और दुनिया ने उसके अलौकिक दर्शन किए!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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