क्या वास्तव में हमारे देश में अल्पसंख्यकता मीठा जरह है

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सर्वोच्च न्यायालय के सामने एक बड़ी मजेदार याचिका आई है। इस याचिका में अश्विनी उपाध्याय ने तर्क दिया है कि भारत में अल्पसंख्यक की परिभाषा बदली जाए। किसी भी मजहब के आदमी को अल्पसंख्यक घोषित करते समय उसके संप्रदाय के लोगों की संख्या का हिसाब राष्ट्रीय नहीं, प्रांतीय आधार पर किया जाए। याने पूरे भारत की जनसंख्या में सिख अल्पसंख्यक हैं लेकिन पंजाब में वे बहुसंख्यक हैं। इसी तरह कश्मीर और लक्ष्द्वीप में मुसलमान बहुसंख्यक हैं लेकिन सारे भारत में उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा मिला हुआ है।

ईसाई लोग मिजोरम, मेघालय और नगालैंड में बहुसंख्यक हैं लेकिन अखिल भारतीय स्तर पर वे अल्पसंख्यक हैं। अल्पसंख्यकों के हितों की रक्षा के लिए अल्पसंख्यक आयोग बना हुआ है। उनके हितों की रक्षा ही नहीं, उन्हें विशेष सुविधाएं सारे देश में ही नहीं, उन प्रांतों में भी मिलती हैं, जहां वे बहुसंख्यक हैं। जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, उन्हें वहां अल्पसंख्यकों की सुविधाएं नहीं मिलतीं। क्यों नहीं मिलतीं? 1992 के अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम में मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और पारसी– इन पांच समुदायों को मजहब के आधार पर अल्पसंख्यकों का दर्जा दिया गया था।

इन पांचों को ही क्यों, अन्य 50 को क्यों नहीं? इस तरह का दर्जा देना ही मेरी राय में गलत है। यह संविधान की मूल भावना के विरुद्ध है। एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र में यह सबसे बड़ा मज़ाक है। मजहब के नाम पर 1947 में यह मुल्क टूटा और उसी आधार को आपने फिर जिंदा कर दिया। पंजाब और नगालैंड को भारत से अलग करने वाली मांग का क्या आप अनजाने ही समर्थन करते हुए नहीं लग रहे हैं? यदि भाजपा सचमुच राष्ट्रवादी पार्टी है तो उसे अल्पसंख्यकता के इस छलावे को तुरंत ध्वस्त करना चाहिए। भारत की जनता की मजहबी पहचान को आपने इतनी अधिक सरकारी मान्यता दे दी है कि अन्तरधार्मिक शादियां आसानी से नहीं हो पातीं।

सच्चे लोकतंत्र और सच्चे राष्ट्रवाद के लिए यह निहायत जरुरी है कि आम नागरिकों की मजहबी और जातीय पहचान अत्यंत व्यक्तिगत रहे। उसका सार्वजनिक और राजनीतिक रुप हो ही नहीं। किसी की वेशभूषा और नाम उसकी जातीय या मजहबी पहचान प्रकट करते हों तो उस पहचान को हतोत्साहित किया जाना चाहिए। किस भी स्वस्थ लोकतंत्र में न तो कोई स्थायी अल्पसंख्यक हो सकता है और न ही बहुसंख्यक ! हर चुनाव में अल्पसंख्यक बदलकर बहुसंख्यक हो सकते हैं और बहुसंख्यक, अल्पसंख्यक ! स्थायी अल्पसंख्यकता तो एक प्रकार से राष्ट्रीय एकता को कमजोर करनेवाला मीठा जहर है, जैसे कि जातीय आरक्षण है लेकिन हम क्या करें ? सारे नेता और सारे दल थोक वोट या वोट बैंक के चक्कर में इसी मीठे जहर का सेवन भारतमाता को कराते जा रहे हैं।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं…

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