क्या मुसलमान ओवैसी को हमदर्द मानेंगे?

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भारत के आजाद होने से पहले करीब दो सौ साल तक सात निजामों ने हैदराबाद की रियासत पर राज किया था और तब इसका दायरा आंध्र प्रदेश के अलावा कर्नाटक और महाराष्ट्र तक था. निजाम तो अब रहे नहीं लेकिन पिछले कुछ बरसों से उसी हैदराबाद की जनता ने देश की राजनीति को एक ऐसा मुस्लिम नेता दिया है, जिसका अंदाज किसी निजाम से कम नही है. AIMIM के नेता असदुद्दीन ओवैसी चूंकि पेशे से वकील भी हैं, लिहाजा दक्षिण भारत के मुस्लिमों में तो उनकी पकड़ ठीकठाक है. लेकिन बिहार और पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनावों में हाथ आजमाने के बाद अब उन्होंने यूपी के चुनावों में भी ताल ठोकने का ऐलान कर दिया है. कांग्रेस और सपा जैसी पार्टियां ओवैसी पर बीजेपी की बी टीम होने का आरोप लगाती रही हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि मुस्लिम वोटों का बंटवारा करने के लिए वे बीजेपी की शह पर ही अपनी पार्टी को चुनावी मैदान में उतारते हैं.

लेकिन अब मुस्लिम ताकत को एकजुट करने यूपी पहुंचे ओवैसी ने आज जो एलान किया है, वो थोडा चौंकाने वाला इसलिए है कि वह उनके मिजाज से मेल नहीं खाता. अब उनका फोकस सिर्फ मुसलमान नहीं है बल्कि ओबीसी और दलित भी हैं, चाहे वे हिंदू ही क्यों न हो. यूपी में पांचवी ताकत बनकर उभरने की कोशिश में जुटे ओवैसी ने अपना सियासी समीकरण बदलते हुए आज बाकी दलों को भी थोड़ा हैरान किया है. उन्होंने सौ सीटों पर चुनाव लड़ने का एलान करते हुए कहा कि हम सबको साथ लेकर चुनाव लड़ेंगे. हिंदुओं को भी टिकट देंगे. ओबीसी और दलित हमारे भाई हैं. सबको बराबर से भागीदारी देंगे.

राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि ओवैसी अपनी तकरीरों में बीजेपी के खिलाफ चाहे जितना जहर उगलते हों लेकिन चुनावों में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों को मैदान में उतारकर एक तरह से वो बीजेपी की ही मदद करते हैं. अब यूपी में भी जितनी सीटों पर उनकी पार्टी लड़ेगी, वहां सबसे ज्यादा नुकसान सपा को और फिर कांग्रेस को होगा क्योंकि मुस्लिम वोट बंट जाने से बीजेपी को ही उसका सीधा फायदा मिलेगा. लेकिन इस बार वे नया सियासी दांव खेलते हुए मायावती की बीएसपी के वोट बैंक में भी सेंध लगाने की जुगाड़ में है क्योंकि अब वे दलित और ओबीसी के हिंदू चेहरों को भी अपनी पार्टी से चुनाव लड़ाने की तैयारी में हैं.

हालांकि ओवैसी को यूपी का मुसलमान कितना सीरियसली लेता है, फिलहाल इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है लेकिन वे मजहबी जज्बात उभारने और उन्हें अपने पक्ष में भुनाने की हर मुमकिन कोशिश तो करेंगे ही. शायद इसीलिए आज उन्होंने ये कहा कि 60 साल से हम सबको जिता रहे हैं. अब हम जीतेंगे. उत्तर प्रदेश का मुसलमान जीतेगा. हम 2022 के विधानसभा चुनाव में सौ सीटों पर चुनाव लड़ेंगे. वैसे ओवैसी की पार्टी ने हैदराबाद से बाहर निकलकर महाराष्ट्र और बिहार में अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हुए कुछ कामयाबी भी जरूर पाई है. लेकिन पश्चिम बंगाल में हुए हाल के विधानसभा चुनाव मे वहां के मुसलमानों ने उनकी दाल नहीं गलने दी और तमाम कोशिशों के बावजूद वह अपना खाता भी नहीं खोल पाई. बंगाल के मुस्लिमों ने ममता बनर्जी की तृणमूल को ही अपने हमदर्द के रूप में कबूल किया है.

ओवैसी अभी चाहे जो दावे करें लेकिन चुनाव आते-आते वे अपना मजहबी कार्ड खेलने से पीछे नहीं हटने वाले हैं. उसका इशारा आज उन्होंने ये कहते हुए दे भी दिया कि उत्तर प्रदेश में हर समाज, हर बिरादरी की पॉलिटिकल लीडरशिप है. उनकी एक पहचान है. उसी तरह से मुसलमानों की भी एक स्वतंत्र आवाज होनी चाहिए. हम लीडरशिप की बात करते हैं, राजनीतिक हिस्सेदारी की बात करते हैं, इसलिए सभी हमारा विरोध कर रहे हैं.”

ओवैसी ने प्रयागराज के डॉन और पूर्व सांसद अतीक अहमद और उनकी पत्नी शाइस्ता परवीन को अपनी पार्टी की सदस्यता देकर ये जाहिर कर दिया कि यूपी में उनकी सियासत किस लाइन पर आगे बढ़ने वाली है. हालांकि माफिया डॉन अतीक अहमद और उनकी पत्नी को पार्टी में शामिल करने का बचाव करते हुए उन्होंने यही सफाई दी है कि अतीक को अब तक किसी भी मामले में सजा नहीं हुई है, जबकि बीजेपी के 87 परसेंट सांसद ऐसे हैं जिन पर गंभीर आरोप हैं. लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या यूपी का मुसलमान ओवैसी को अपने ‘हमदर्द नेता’ के रूप में कबूल करेगा?

नरेंद्र भल्ला
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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