कैग की रिपोर्ट : खोदा पहाड़-निकला चुहिया

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ये कैग की चाहत थी या फिर ऐसा करके कैग ने मोदी सरकार को राहत दी है? जब किसी बात को लेकर हंगाम मचा होता है क्या उस वक्त परदादारी से राहत मिल जाती है? उस वक्त परदा हटाने से ही राहत मिलती है। छिपाने से नहीं। अगर मोदी सरकार ने राफेल डील सस्ते में की है और विपक्ष के साथ-साथ जनता के मन भी संदेह जा रहा है।।

परदे में रहने दो, परदा ना उठाओं, परदा जो उठ गया तो भेद खुल जाएगा, राफेल डील पर कैग की रिर्पोट का मोटा-मोटा सा सार यही है। ये कैग की चाहत थी या फिर ऐसा करके कैग ने मोदी सरकार को राहत दी है। जब किसी बात को लेकर हंगाम मचा होता है क्या उस वक्त परदादारी से राहत मिल जाती है? उस वक्त परदा हटाने से ही राहत मिलती है। छिपाने से नहीं। अगर मोदी सरकार ने राफेल डील सस्ते में की है और विपक्ष के साथ-साथ जनता के मन भी संदेह जा रहा है कि दाल में छुक काला है तो फिर लोकसभा चुनाव जैसे नाजुक वक्त में मोदी सरकार इतना बड़ा जोखिम क्यों उठा रही है? माना कि देश हित सर्वोपरि हैं लेकिन आज तक तो आजाद भारत या किसी लोकतंत्रिक देश में ऐसा सुना व देखा नहीं गया कि किसी भी डील को देश हित के नाम पर छिपा लिया जाए। अगर सारी जनता ये जानना चाहती है कि आखिर इस डील में ऐसा है क्या जो बताने में गुरेज कैसा? अगर छिपाएंगे तो क्या विपक्ष के झूठे-सच्चे आरोप सही साबित नहीं होंगे? कम से कम जनता को चुनाव में जरा सा भी लगा कि ये भी ऐसे ही हैं तो क्या पार्टी और मोदी सरकार इसकी कीमत चुनाव में नहीं चुकाएगी?

अगर कैग का काम ही यही है कि वो सच को सामने लाए तो फिर कैग ने उस सवाल का जवाब इस रिर्पोट में क्यों नहीं दिया जो संसद के सामने पेश हो चुकी है और जिस पर पूरे देश में हंगामा भी मचा है और भ्रष्टाचार के सवाल भी लाल दर और लाल होते जा रहे हैं। राफेल विमानों की कीमत बताने में कैग ने परहेज क्यों किया? कैग ने कीमत की जगह कोड का इस्तेमाल क्यों किया?

कैग ने जिस तरह की रिपोर्ट राफेल डील पर पेश की है उसमें ऐसा तो कुछ नया नहीं है जिसे मोदी सरकार के मंत्री और भाजपा के नेता देश के सामने ना रखते आए हों। ऐसे में ये मानने में कैसा गुरेज कि कैग ने ये रिपोर्ट बनाते वक्त सरकारी प्रवक्ता की तरह काम किया? तो क्या राहुल गांधी के वो आरोप सही है जो उसने कैग को लेकर लगाए थे कि कैग मोदी सरकार की नुमाइंदगी ही करता है, सच को दबाता है, सामने नहीं आने देता। अगर इस संस्था का भी सीबीआई और आरबीआई जैसा हाल होगा तो फिर कैग की जरूरत ही देश को क्यों हैं? फिर कैसा लेखा नियंत्रक? अगर खाते-बही वही सही जो सरकार कहे तो कैग के कोई मायने नहीं।

कैग ने आखिर यू वन जैसा कोड इस्तेमाल क्यों किया? ये यू वन अननोन मिलियन यूरो है, ये अननोन राशि क्या है, ये जानने का हक नेताओं से ज्यादा सबका है। आखिर पैसा सरकारी खजाने से जा रहा है जो किसी भी राजनीतिक दल या सरकार की निजी मिल्कियत नहीं है बल्कि जनता का पैसा है जिस पर जनता की पहरेदारी जरूरी है। वो तभी होगी जब जनता को सच पता होगा।

पर सरकार अगर ये ठान रही है और कैग ये मान रहा है कि सब सही है तो फिर कहने व लिखने को बचता ही क्या है? मान लेते हैं कि कैग के सामने कुछ बंदिशें होंगी लेकिन ऐसी भी क्या बंदिश की रिपोर्ट में सरकार की प्रक्रिया व उसके जवाबों को ही पूरा का पूरा ज्यों का त्यों रख दिया जाए? अहम सवाल ये है कि राफेल डील की कीमत ना बताने क्या सवाल दब जाएंगे? अगर सवाल और लाल होने लगे तथा मजबूर होकर सरकार को कीमत बतानी पड़ी तब क्या सब कुछ ठीक हो जाएगा? हैरानी की बात ये है कि अमेरिका में इलाज करा रहे वित्त मंत्री अरुण जेटली जिस तरह आए दिन ब्लाग लिख रहे हैं और कैग की रिपोर्ट आने के बाद घिसा-पिटा राग अलाप रहे हैं तो ऐसे में दिल तो नहीं मानता कि वो इतने बीमार हैं? खैर वो जल्दी ठीक हों लेकिन कम से कम ऐसा रोग से देश तो बीमार ना हो?

लेखक
डीपीएस पंवार

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