कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां पता नहीं मौजूदा समय को और इस समय अपनी जरूरी राजनीतिक भूमिका को सही तरीके से समझ पा रही हैं या नहीं पर हकीकत है कि इस समय एक राष्ट्रीय और मजबूत विपक्ष की जरूरत किसी भी और समय के मुकाबले ज्यादा है। पर कांग्रेस के नेता लोकसभा चुनाव के बाद से ही ऐसा मान रहे हैं कि उनके लिए सब कुछ खत्म हो गया। अब कोई उम्मीद नहीं बची। क्षेत्रीय पार्टियां जैसे तैसे अपना वजूद बचा लें तो वह बड़ी बात होगी। पर ऐसी सोच हालात की वजह से नहीं है, पार्टियों की अपनी कमजोरी और कमजोर नेतृत्व की वजह से है।
असलियत तो यह है कि देश के लोग अब चाह रहे हैं कि उनके हित से जुड़े मुद्दे उठाए जाएं। इसके लिए हर बार कोई मसीहा किस्म का व्यक्ति सामने नहीं आ सकता है। मुख्यधारा की विपक्षी पार्टियों को ही यह भूमिका निभानी है। कांग्रेस यह भूमिका निभा सकती है पर मुश्किल यह है कि उसके नेता अपने को विरोधी दल मानने को राजी नहीं हैं। कांग्रेस चूंकि ज्यादातर समय सत्ता में रही है। उसके नेता हमेशा या तो सरकार में रहे हैं या सरकार में जाने के इंतजार में रहे हैं। विपक्षी राजनीति करने का प्रशिक्षण तो पार्टी के तौर पर कांग्रेस को है और न उसके नेताओं को। पहले भी जब केंद्र में भाजपा की सरकार रही तो विपक्षी पार्टी के तौर पर या तो वामपंथी पार्टियां काम करती थीं या समाजवादी पार्टियां। लेकिन अब इन दोनों विचारधारा वाली पार्टियां अपनी प्रासंगिकता खो रही हैं। देश में वामपंथी आंदोलन दम तोड़ रहा है। सीपीआई और सीपीएम दोनों अपने आधार वाले क्षेत्रों में लगातार सिमटती जा रही हैं। ऐसा माना जा रहा है कि उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा दी। अब उनकी जरूरत नहीं रह गई।
इसका बड़ा कारण यह है कि भारत के वामपंथी नेताओं ने अपनी बुनियादी नीतियों और सिद्धांतों पर राजनीति नहीं की। उनको मजदूरों और किसानों के लिए काम करना था। उन्हें समाज की गैर बराबरी के खिलाफ लड़ना था। उन्हें आम आदमी के हक की आवाज उठानी थी पर पिछले तीन दशक की राजनीति को आप देखें तो ऐसा लगेगा कि भारत की वामपंथी पार्टियों की एकमात्र चिंता भाजपा को रोकने की है। उन्होंने साम्यवाद के सिद्धांतों पर लड़ने की बजाय संप्रदायवाद को रोकने के लिए लड़ते रहे। भाजपा को रोकने का प्रयास करना और अपने को सेकुलर दिखाना उनकी पहली चिंता रही। जबकि देश के आम लोगों की यह पहली चिंता नहीं थी। उनकी प्राथमिकता रोजगार, कारोबार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की थी। लेफ्ट ने अपने शासन वाले राज्यों में भी इसकी परवाह नहीं की और बतौर विपक्ष भी इसके लिए काम नहीं किया।
यहीं हाल कमोबेश समाजवादी पार्टियों का भी रहा। उनके नेता भी भाजपा को रोकने के राजनीति ही प्राथमिकता के साथ करते रहे। उनका मकसद समाजवाद लाना नहीं रह गया, बल्कि वे देश को सेकुलर बनाने में जुटे रहे। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने यहीं काम किया। यह काम दोनों के लिए उलटा पड़ गया। उनकी समाजवादी राजनीति भाजपा जैसी पूंजीवादी सिद्धांतों वाली पार्टी को रोक सकती थी पर उन्होंने इसकी बजाय सेकुलरवाद की राजनीति को तरजीह दिया, जिसका नतीजा यह हुआ है कि दोनों पार्टियां सिमट रही हैं और इनके असर वाले राज्यों में भाजपा बहुत बड़ी ताकत के तौर पर उभरी है और स्थापित हुई है। अगर इन समाजवादी पार्टियों के नेताओं ने अपने पुरखों के समाजवाद का सिद्धांत अपनाया होता तो इनके जेल जाने की नौबत भी नहीं आती। पर उनको लगा कि सेकुलरवाद की राजनीति उनकी सारी कमजोरियों और पापों को ढक देगी।
सो, सिद्धांत और राजनीतिक प्रशिक्षण दोनों लिहाज से विपक्ष की प्रभावी भूमिका निभा सकने वाले साम्यवादी और समाजवादी दोनों हाशिए में हैं। इस लिहाज से भी कांग्रेस के लिए राष्ट्रीय और मजबूत विपक्ष के तौर पर उभरने का आदर्श समय है। इसके लिए कांग्रेस को यह समझना होगा कि वह सत्तारूढ़ पार्टी नहीं है और बिना प्रभावी विपक्ष बने वह सत्ता में नहीं आ सकती है। यह समझने की बजाय कांग्रेस के नेता इस इंतजार में हैं कि भाजपा की केंद्र सरकार खुद ही गलतियां करेगी और सत्ता से बाहर होगी। पर मौजूदा समय में यह संभव नहीं है। सबकी आंखों के सामने दिख रहा है कि कैसे मौजूदा सरकार प्रचार तंत्र के सहारे अपनी विफलताओं को अपनी सफलता बना तक प्रचारित कर रही है। और कांग्रेस इसका प्रतिरोध नहीं कर पा रही है।
केंद्र में दूसरी बार नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद पिछले पांच महीने में ही कितने मौके आए हैं, जब कांग्रेस बड़ा आंदोलन खड़ा कर सकती थी। पर वह हर बार इस काम में फेल रही। वह पंजाब एंड महाराष्ट्र कोऑपरेटिव, पीएमसी बैंक के लाखों खाताधारकों का पैसा रोके जाने का मुद्दा नहीं बना सकी। पैसा रोके जाने से अब तक इस बैंक के आठ खाताधारकों की मौत हो चुकी है। कांग्रेस सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी और अखिल भारतीय असर वाली इकलौती पार्टी होने के बावजूद देश भर में छाई आर्थिक मंदी और बेरोजगारी को मुद्दा नहीं बना सकी है। उसकी अपनी नेता प्रियंका गांधी वाड्रा से लेकर देश के एक सौ से ज्यादा सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के फोन हैक होने और उनकी जासूसी किए जाने की आधिकारिक खबरें आईं पर कांग्रेस इस पर आंदोलन नहीं खड़ा कर सकी।
देश की संस्थाएं अपनी साख गंवा रही हैं। यह पहला मौका है, जब वकील और पुलिस यानी कानून और व्यवस्था आमने सामने हैं और सरकार चुप्पी साधे रही। पहली बार ऐसा हो रहा है कि संवैधानिक पद पर बैठे लोगों को सजा देने के मकसद से उनका इतिहास खंगाला जा रहा है। पर कांग्रेस के नेता ट्विट करने के अलावा कुछ नहीं कर पा रहे हैं। यह सही है कि देश में नरेंद्र मोदी के प्रति अब भी लोगों का रूझान पर यह भी हकीकत है कि करीब 60 फीसदी लोग उनकी पार्टी के विरोधी भी हैं। और अब तो भाजपा और मोदी के समर्थकों का भी मोहभंग शुरू हुआ है। उनके करिश्मे का तिलिस्म टूटने लगा है। ऐसे में कांग्रेस यह मानना बंद करे कि उसके लिए सब कुछ खत्म हो गया है तो वह एक मजबूत, राष्ट्रीय विपक्ष बन सकती है और वहीं से उसकी सत्ता में वापसी का रास्ता भी बनेगा।…
तन्मय कुमार
लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं