कांग्रेस का अतंर्विरोध

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देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के भीतर का उहापोह खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। विसंगति यह है कि चुनाव के दिनों में यह संकट और गहरा हो जाता है। हरियाणा और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। पार्टियां प्रचार अभियान में अपनी पूरी ताकत झोंके हुए हैं लेकिन कांग्रेस के भीतर कुछ ऐसे सीनियर नेता हैं जिनके बयानों से कार्यकर्ताओं के मनोबल पर विपरीत असर पड़ता है जबकि ऐसे समय में जब चुनाव की घड़ी हो तब यदि किसी तरह का घाव पल भी रहा है तो उसे कुरेदा नहीं जाता। ताजा मसला ले-देकर फिर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के इर्द-गिर्द सिमट गया है। बीते दिन पार्टी के कद्दावर नेता सलमान खुर्शीद ने कह दिया कि उनके नेता संकट के समय में पार्टी को अधर में छोड़ गए हैं। बात आई-गई होती यदि राशिद अल्वी ने पलटवार ना किया होता। एक तो भाजपा ने राहुल गांधी के विदेश दौरे पर पहले से ही सवाल उठा रखा है।

जिस पर खुर्शीद और अल्वी के बयानों ने पार्टी की बेवजह दूसरे गैरजरूरी कारणों से चर्चा में ला दिया है। ठीक है, राहुल गांधी को जो उचित लगा उन्होंने वैसा कदम उठाया। उस पर पार्टी के भीतर बेशक लोगों की दीगर राय हो सकती है। लेकिन इसे सार्वजनिक करने के लिए मौके का ख्याल जरूर रखा जाना चाहिए। चुनाव के समय में जब टिकट वितरण को लेकर उन नेताओं के सुर बदले हुए हैं, जिनके समर्थकों को पार्टी ने टिकट नहीं दिया है। कुछ ने तो दूसरे दलों का हाथ थाम लिया है और कुछ पार्टी में ही रहकर बगावती तेवर अपनाए हुए हैं। मसलन हरियाणा के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने पार्टी छोड़ दी है। 2019 के चुनाव में भले ही राज्य में कांग्रेस को जीत ना मिली हो लेकिन 2014 के आम चुनाव के मुकाबले 6 फीसदी पार्टी के वोटों में इजाफा हुआ है।

जाहिर है उनके इस्तीफे से पार्टी के वोट प्रतिशत पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। तंवर राहुल गांधी की पसंद थे। अब उनकी जगह कुमारी सैलजा हैं, हुड्डा और सोनिया गांधी दोनों की पसंद बताई जाती हैं। इसी तरह संजय निरूपम भी राहुल की पसंद रहे हैं। पर अब उन्हें पूरी तरह से दरकिनार कर दिया गया है। टिकट वितरण में उनकी भी नहीं चली। हालांकि अभी वह पार्टी में बने हुए हैं। यही हाल ज्योतिरादित्य सिंधिया का है। तो ऐसे वक्त में जब राहुल के करीबियों की उपेक्षा हो रही है तब खुर्शीद के बयान कहीं न कहीं पार्टी के अन्तर्विरोध को हवा देने का काम कर रहे हैं। उन्हें अपनी साफगोई और बेबाकी से बचना चाहिए था। कई बार उनके बयानों से पार्टी का अन्तर्विरोध खुलकर सामने आया है। बीजेपी तो ऐसे मौके का फायदा उठाएगी ही, इसमें विरोधियों की भला क्या खता?

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