कहीं ज्यादा है कांग्रेस का संकट

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कांग्रेस की विभिन्न राज्य इकाइयों में हो रहे घटनाक्रम बता रहे हैं कि पार्टी में सबकुछ ठीक नहीं है। कांग्रेस के वे क्षेत्रीय नेता, जो अब तक पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व के सामने झुके दिख रहे थे, वे अब आवाज उठा रहे हैं, जिससे राज्य इकाइयों में खलबली मची है। सफलतापूर्वक पार्टी चलाने के लिए मजबूत केंद्रीय नेतृत्व के साथ पार्टी के विस्तार के लिए विभिन्न राज्यों में मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व भी जरूरी है। इस समय कांग्रेस के पास बहुत कमजोर केंद्रीय नेतृत्व है, जिससे राज्य का नेतृत्व मजबूत होता दिख रहा है। हम अक्सर कांग्रेस के बारे में कहते थे कि वह अत्यंत केंद्रीकृत पार्टी है, जिसके पास इंदिरा गांधी जैसा मजबूत केंद्रीय नेतृत्व है। ऐसा नहीं है कि तब क्षेत्रीय नेतृत्व में मजबूत नेता नहीं थे, लेकिन महत्वपूर्ण फैसले केंद्रीय नेतृत्व ही लेता था। कांग्रेस के कमजोर होने की प्रक्रिया मंडल युग के बाद, 1990 के दशक से शुरू हुई, जिसमें 2014 में कांग्रेस की हार से तेजी आई।

कहा जाने लगा कि कांग्रेस में क्षेत्रीय क्षत्रपों की कमी उसके पतन का कारण है। तब किसी को अहसास नहीं था कि कांग्रेस को मजबूत केंद्रीय नेतृत्व की भी जरूरत है। नतीजा, पार्टी का मौजूदा संकट। पार्टी के कमजोर होने का इससे बड़ा नमूना क्या होगा कि पार्टी पिछले दो साल से अपना राष्ट्रीय अध्यक्ष ही नहीं चुन पा रही है। कांग्रेस का संकट जितना दिखता है, उससे कहीं ज्यादा गहरा है। यह समझ आता है कि सत्ता दांव पर होती है, तो राज्य में पार्टी के भीतर प्रतिद्वंद्वी इकाइयां होती हैं, लेकिन मुझे हैरानी है कि राज्य इकाई के विभिन्न गुटों के भीतर विभाजन इतना व्यापक है कि इसमें पार्टी की चुनावी संभावनाओं को गंभीर नुकसान पहुंचाने की क्षमता है। पंजाब इसका अच्छा उदाहरण है। कांग्रेस की सत्ता वाले दो अन्य राज्य, राजस्थान व छत्तीसगढ़ में भी पार्टी इसी दिशा में जाती दिख रही है। अंतर सिर्फ इतना है कि यहां पंजाब की तरह चुनाव नहीं आने वाले।

हैरानी इस बात की भी है कि राज्य इकाई में उठापटक वहां ज्यादा दिख रही है, जहां कांग्रेस सत्ता में नहीं है। अब जी-23 नाम से मशहूर, पार्टी के वरिष्ठ सदस्यों के समूह की आपत्तियां किसी से छिपी नहीं हैं। इन सब से संकेत मिलते हैं कि पार्टी में गंभीर संकट है। पंजाब संकट से सभी अवगत हैं। मुयमंत्री अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू में टकराव जारी है। अब पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष बन चुके सिद्धू ने पार्टी नेतृत्व से फैसले लेने की स्वतंत्रता देने कहा है। राजस्थान कांग्रेस में पार्टी के अधूरे वादों के कारण सचिन पायलट और मुयमंत्री अशोक गहलोत में टकराव जारी है। छत्तीसगढ़ में मुयमंत्री भूपेश बघेल और स्वास्थ्य मंत्री टीएस सिंह देव के बीच नया टकराव उभरा है, जहां सिंहदेव नेतृत्व में बदलाव की मांग कर रहे हैं क्योंकि उनका दावा है कि पार्टी ने ढाई साल बाद मुख्यमंत्री बदलने का वादा किया था।

केरल, कर्नाटक, मणिपुर, असम और अन्य राज्यों में भी कांग्रेस संकट का सामना कर रही है, जहां पार्टी सत्ता में नहीं है। केरल में हाल ही में गोपीनाथन ने टिकट न मिलने और पार्टी महासचिव केसी वेणुगोपाल के काम करने के तरीकों से नाखुश होकर पार्टी छोड़ दी। कहा जा रहा है कि 2023 विधानसभा चुनाव में मुयमंत्री पद के दावेदार को लेकर भी मतभेद हैं। उधर असम में महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सुष्मिता देव ने पार्टी छोड़ दी है। खबरों के मुताबिक हिमाचल प्रदेश में वरिष्ठ नेता वीरभद्र सिंह के देहांत के बाद, पार्टी को नेता तलाशने में मुश्किल हो रही है क्योंकि वहां कई दावेदार हैं। मणिपुर में भी तीसरी पीढ़ी के कांग्रेसी, राजकुमार इमो सिंह, पूर्व सीएम और कांग्रेस के दिग्गज नेता ओकराम इबोबी सिंह के विद्रोह में नौ विधायकों के साथ पार्टी छोडऩे की तैयारी कर रहे हैं। ये सभी घटनाएं सवाल उठाती हैं, कांग्रेस किस दिशा में जा रही है?

संजय कुमार
(लेखक सीएडीएस में प्रोफेसर और राजनीतिक टिप्पणीकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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