आजादी के बाद हमारे देश में आज तक एक महिला राष्ट्रपति, एक महिला प्रधानमंत्री 16 महिला मुख्यमंत्री, 27 राज्यपाल व उपराज्यपाल और 7 महिला सुप्रीम कोर्ट के जज हुई है। यह कम नहीं है, पर क्या यही काफी है? अगर हां तो फिर क्यों आज भी देश में बच्ची को जन्म लेने से पहले मार दिया जाता है? क्यों आज भी ज्यादातर घरों में महिलाओं को बाहर कदम रखने से पहले इजाजत लेनी पड़ती है? क्यों देश के श्रमिक वर्ग में केवल 25 प्रतिशत महिलाएं हैं और क्यों उसमें भी ज्यादा संख्या कम भुगतान वाली जॉब्स की है? महिलाओं के खिलाफ अपराध का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है, क्यों? आखिर यह स्थिति कब सुधरेगी? केवल सामाजिक जागरूकता फैलाने से संतोषजनक परिणाम मिलने होते तो मिलते दिख रहे होते। साफ है कि महिलाओं को खुद आगे बढक़र अपनी इस स्थिति बदलने की पहल करनी होगी। पर सवाल है कि महिलाएं आगे बढ़ें और हालात को बदलें तो कैसे। देश की लोकसभा में आज 14 फीसदी महिलाएं हैं और राज्यसभा में 11 फीसदी। विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व और कम है।
देश भर की विधानसभाओं के 4,118 विधायकों में केवल 418 महिला एमएलए हैं यानी नौ फीसदी। सबसे पहले हमें इसे बदलने की जरूरत है। यह सुनिश्चित करना होगा कि देश की संसद और विधानसभाओं में महिलाओं का ज्यादा प्रतिनिधित्व हो। ध्यान देने की बात यह है कि विधायिका में प्रतिनिधित्व के मामले में महिलाएं भले पीछे हों, वोट करने के मामले में वह पुरुषों से आगे निकल चुकी हैं। यह समाज में उनकी स्थिति बदलने वाला सबसे बड़ा कारक साबित हो सकता है। देश की दोनों प्रमुख पार्टियां बीजेपी और कांग्रेस पिछले 20 वर्षों से हर लोक सभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण का वादा करती हैं। लेकिन आज तक किसी भी पार्टी ने इस बिल को पास करने के लिए गंभीरता से प्रयास नहीं किए। जब-जब इस बिल को पेश किया गया, विपक्ष के एक हिस्से ने इसका तीखा विरोध किया और बड़ी पार्टियों ने उस विरोध के सामने सिर झुका लिया।
हालांकि देशभर की पंचायती राज संस्थाओं में 33 पर्सेंट आरक्षण लागू है और काफी राज्यों के नगर निगमों में तो महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत तक आरक्षण मौजूद है। फिर लोक सभा, राज्यसभा और विधानसभाओं में इसे क्यों लागू नहीं किया जा सकता? आज सरकार के पास लोक सभा में तो मजबूत बहुमत है ही, राज्यसभा में भी बहुमत जुटाने की क्षमता है। यह पिछले कुछ बिल पारित होने से साबित भी हो चुका है। साथ ही आधे से अधिक राज्यों में बीजेपी या एनडीए की सरकार है। इससे सुनहरा मौका इस बिल के लिए फिर कब मिलेगा, कहा नहीं जा सकता। आज भी देश में ज्यादातर परिवार राजनीति जैसे क्षेत्र में महिलाओं के जाने को सपोर्ट नहीं करते हैं। ऐसे में जरूरी है कि महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए संसद और विधानसभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण पर कानून जल्द से जल्द पास हो।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं ने राजनीति व समाज सेवा के क्षेत्र में अपने आप को साबित ना किया हो। देश की प्रथम महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपलानी से लेकर प्रथम प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व प्रथम महिला राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल तक, हर पार्टी में महिलाओं ने अपने नेतृत्व का लोहा मनवाया है। चाहे कांग्रेस में सोनिया गांधी हों या बहुजन समाज पार्टी में मायावती, तृणमूल कांग्रेस में ममता बनर्जी हों या पीडीपी में महबूबा मुफ्ती- ये सब अपनी-अपनी पार्टी को नेतृत्व दे रही हैं। बीजेपी में भी तेजतर्रार महिला नेताओं की कमी नहीं रही है। देश की तरक्की के लिए जरूरी है कि देश की आधी आबादी को आरक्षण कानून के जरिए बराबर का मौका उपलब्ध कराया जाए। इससे उन महिलाओं को आगे आने का अवसर मिलेगा, जो देश व समाज के लिए काम करना चाहती हैं लेकिन समाज व पारिवारिक दबाव के चलते घर बैठ जाती हैं। महिलाओं का देश की संसद व विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व जितना बढ़ेगा, उतनी गंभीरता से देश महिलाओं के उत्थान पर काम कर सकेगा।
वन्दना सिंह
(लेखिका दिल्ली महिला आयोग की सदस्य हैं, ये उनके निजी विचार हैं)