कंद-मूल-फल खाओ, पृथ्वी बचाओ!

0
534

छोड़ो इधर-उधर की बातें और सीधे पृथ्वी को बचाने की चिंता करें! पचास साल बाद न हिंदू जी पाएगा और न मुसलमान व न ईसाई। इसलिए कि तीस साल बाद सन् 2050 में ही विश्व आबादी 10 अरब हो जानी है और यदि इन तीस सालों में हम-आपने खाने की अपनी आदत को नहीं बदला, शाकाहारी नहीं बने, पैदल चलना शुरू नहीं किया याकि रहन-सहन नहीं बदला तो प्रलय है। प्रलय मतलब हिमालय बिना बर्फ होगा, असमय बारिस व बाढ़ होगी या सूखा होगा और असमय बर्फबारी, तूफान, भयावह रिकार्ड तोड़ गर्मी में लोग झुलस रहे होंगे! हां, इस सबका अनुभव पिछले दो-चार सालों से पृथ्वी को कुछ-कुछ हुआ है। योरोप, ब्रिटेन रिकार्ड गर्मी से अभी झुलसे हैं तो अमेरिका से लेकर ग्रीनलैंड, दक्षिण अमेरिका, आस्ट्रेलिया सभी तरफ जलवायु का कहर इस तरह बरप रहा है कि हर व्यक्ति महसूस करने लगा है कि मौसम गडबड़ा रहा है और जलवायु परिवर्तन की बात, उसके खतरे की चेतावनी को गंभीरता से लेना होगा!

हां, मैं भी पांच साल पहले तक जलवायु परिवर्तन की चिंता पर भेड़िया आया के शोर के अंदाज में विचार नहीं करता था। बीस-तीस साल पहले मानव क्षमताओं की सीमितता या असीमितता पर वैश्विक विचारक प्राकृतिक संसाधनों के दोहन और उपभोग को ले कर जो बहस लिए हुए थे उसमें मैं असीमित विकास की थीसिस सही मानता था। यों अभी भी मैं मानव द्वारा पृथ्वी की अल्टरनेटिव व्यवस्था याकि मंगल या किसी और ग्रह को उपनिवेश बना सकना संभव मानता हूं बावजूद इसके पृथ्वी पर जल्द प्रलय के खटके का सत्य भी है। आखिर ब्रह्माण्ड के किसी ग्रह को उपनिवेश बना कर उसे बसाना और पृथ्वी के जीव-जंतुओं का उस ग्रह में ट्रांसपोर्टेशन सौ-दो साल का समय तो लेगा। इस बीच यदि पृथ्वी की आबोहवा, उसके मौसम को ग्रीनहाऊस की गैसों ने खा लिया, बारह ही महीने गर्मी होने लगी, योरोप में आल्स् , एसिया में हिमालय यदि राजस्थान के अरावली पर्वतश्रंखला में बदल गए तो क्या पृथ्वी पचास साल में ही रेगिस्तान नहीं हो जाएगी? तब पानी और खाने की मारामारी, हाहाकार में लोग कही आदि मानव बन कर एक दूसरे को ही न खाने लगें!

मौटे तौर पर पृथ्वी के इंसान को दूसरे ग्रह को उपनिवेश बना वहा मानव सभ्यता को अक्षुण्ण ट्रांसफर कराने में 150-200 साल चाहिए। पर क्या इतना वक्त है? अजीब सी बात है और मानव सभ्यता के लिए आगे यह बड़ी पहेली होनी है कि मानव की बुद्धि के विकास का पिछले दो सौ सालों में जो ज्वालामुखी विस्फोट हुआ तो वह कई सहस्त्राब्दियों याकि इंसान के मेमने से शेर बनने के क्रमिक विकास की दास्तां में अचानक एकदम उछल कर एवरेस्ट पहुंचने वाली दास्ता है लेकिन ठीक उसी अनुपात में प्रकृति ने भी इसी अवधि में रौद्रतम रूप धारण करने का अनुभव भी करा रही है। जीना खुशगवार हुआ है तो हवा खराब हुई है। मतलब विकास और विनाश दोनों साथ-साथ समानांतर इस होड़ में हैं कि कौन किसको पहले मात करता है!

सोचने वाली बात है कि औद्योगिक क्रांति बाद (हालांकि मैं कालखंड को योरोपीय पुर्जनागरण वक्त से शुरू मानता हूं। वही से बुद्धि के विन्यास में जंप है।) के दो सौ सालों में इंसान जितना उछला,उसकी बुद्धि, निडरता में क्षमताओं का जो एवरेस्ट बना तो ठिक उसी अनुपात में प्रकृति भी पृथ्वी को नंगा, गर्म, आग का गोला बनाने की प्रतिस्पर्धा में है।

ताजा वैज्ञानिक, पर्यावरणविद निष्कर्ष दिमाग भन्ना देने वाला है। इस गुरूवार को जिनिवा में 50 देशों के 107 वैज्ञानिकों ने एक भयावह रिपोर्ट दी है। लोगों को सीधे पेट और जीभ के स्वाद की प्रवृतियों पर चेताते हुए कहा है कि वे अब जंगल का कंद-मूल-फल खाएं और अपनी मांसाहारी, मीट-चिकन आदि जीव-जंतु खाने की आदत बदले नहीं तो प्रलय जल्द है। कैसी भयावह और अबूझ बात है यह! हम आज तक यह मानते थे कि कोयले का धुंआ, पेट्रोल-डीजल के उपयोग से हवा में जहरीली गैसों का जो फैलाव है वह जलवायु परिवर्तन का जिम्मेवार कारण है लेकिन अब निष्कर्ष है कि इसके साथ इंसान ने जंगल काट कर खेत बनाए, गाय-भैस पाल दूध-दही का धंधा बनाया और जानवरों के मीट का स्वाद पाला तो उसने भूमि को ऐसा शक्तिहीन, पोला बनाया है कि भूमि की कार्बन सोखने की ताकत खत्म हुई है या घट गई है!

उफ! भयावह वैज्ञानिक निष्कर्ष! संयुक्त राष्ट्र की एजेंसी आईपीसीसी याकि ‘इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज’ का दुनिया को दो टूक मैसेज है कि लोग अपने खाने की आदत को बदलें। खाने में बरबादी घटाएं और भूमि को जल्दी से जल्दी जगंल के आवरण, पेड़-पौधों से ढंकने का प्रबंध करें। भूमि का खेतीहर फैलाव, चरागाह, रेतीली-भूरभूरी मिट्टी बनना रोकें क्योंकि इससे अंततः सूखी, भूखी मिट्टी वाला मरुस्थलीकरण होता है जो कार्बन सोख नहीं पाता है।

मतलब यदि कल-कारखाने के धुओं को खत्म करना है, वाहनों को धुआं मुक्त बनाना है तो वह जब होगा तब होगा लेकिन उससे पहले भूमि को उसे जंगल के, पेड-पौधो के स्थाई मूल कवर में लौटाना भी जरूरी है ताकि आबोहवा की खराब हवा याकि कार्बन भूमि-प्रकृति से लगातार सोखी जाती रहे।

उस नाते पृथ्वी आज दुष्चक्र की मारी है। पृथ्वी याकि भूमि बिना कपड़े लते (मतलब जंगल- हरित कवर, ग्लेशियरों का धीरे-धीरे खत्म होना) के है। धूप-गर्मी से झुलसी-काली हुई पड़ी है। जो भी भूभाग हिम मुक्त हुआ उसकी एक-चौथाई भूमि का क्षरण हो चुका है। पहले से जो इलाका रेगिस्तान, बंजर, खेतीहर सूखी जमीन का है उसकी कार्बन सोखने की क्षमता पहले से ही खत्म है। इनमें न ढ़ंग से खेती हो रही है और न आबोहवा सुधर रही है। ऐसे इलाकों में या देशों में भूखमरी व अल्पपोषण की अलग समस्या है जो आगे और बढ़ेगी क्योंकि मौसम वहा दिनों दिन गड़बडाना है। आबादी बढ़ रही है खाद्य पदार्थों की जरूरत बढ़ रही है तो या तो अमीर देशों में खानेपीने का वेस्टेज को रोका जाए या पैदावार को बढ़ाएं। पैदावार मतलब खेती बढ़े। पर्यावरण बिगड़े और प्रलय जल्दी आए। फिलहाल टारगेट पृथ्वी के तापमान की बढ़ोतरी को 1.5 या 2 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढ़ने देने (इतना बढ़ना भी घातक है लेकिन यह भी संभव नहीं लग रहा है।) का है तो ऐसा खाद्यान-मीट पैदावार याकि खेती और बढ़ाने से संभव ही नहीं होगा। उलटे वातावरण से कार्बन डाइ ऑक्साइड को हटाने-घटाने के लिए भूमि को पेड़-पौधों-जगंल से कवर करना होगा। सो लोग खाएं कंद-मूल-फल।

विशेषज्ञों के अनुसार जमीन की सबसे ज्यादा बरबादी मांसाहार के लिए पशुपालन याकि गाय, बकरी, सुअर का मीट-बीफ-पोर्क बनाने से है। पशु के चरागाह, पशु को खिलाने के बांटे याकि मक्का, जौ, अनाज की पैदावार ने भूमि को पेड़-पौधे-जंगल रहित बनाया है। पशुपालन में गोबर आदि के ढेर की मिथाईन गैस अकेले ग्रीनहाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में एक-चौथाई उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार है। अब एक तरफ आबादी दस अरब होने वाली है तो अनाज की पैदावार और पशुपालन के लिए जंगलों की कटाई (ब्राजिल आदि भूमध्यरेखा के जंगल) से भूमि नंगी हो रही है। एक अनुमान अनुसार अगले 30-50 सालों में ऑमेजान के ही जंगलों की कटाई से 50 बिलियन टन कार्बन वातावरण में बढ़ेगी।

तभी खेती में आधुनिक जुमला अब भूमिगत खेती बढ़वाने का है तो फैक्ट्री में बनाया कृत्रिम मांस लोकप्रिय बनाया जा रहा है।

इस रिपोर्ट पर सितंबर में संयुक्त राष्ट्र में विचार होना है। ब्राजिल, कोलोबिंया, अमेरिका सभी तरफ बड़े खेतीहर किसानों और पशुपालकों, मीट उद्योग ने हल्ला बना दिया है कि यह तो उनके पेट पर लात। बावजूद इसके किसान, पशुपालक भी महसूस कर रहे है कि मौसम बदल रहा है तो यदि वैज्ञानिकों का निष्कर्ष पशुपालन, खेती के लिए जमीन जाया या बरबाद करना जिम्मेवार कारण है तो अंततः फैसला होगा।

सोचें, क्या खेती रोकी जा सकती है, क्या योरोप-अमेरिका में खाने के सामान की बरबादी, उसे झूठा फेंकने आदि की प्रवृतियों पर रोक लगा कर अनाज बचाया जा सकता है? ऐसा करने से अनाज की मांग घटेगी तो बढ़ती आबादी का पेट भर सकेगा और ज्यादा पैदावार के लिए जंगल नहीं कटेंगे। खेतीहर जमीन में फलदायी पेड़-पौधो से भूमि को कवर किया जा सकेगा। दिक्कत यह कि खेती करने वाले करोड़ों किसानों को कैसे खेती करने से रोका जाएगा? वे फिर क्या करेंगे? मौटे तौर पर खेती और पशुपालन घटाने की दिशा में सोचा जाने लगा है। खेती भूमिगत हो और मांस फैक्ट्री में बना नकली खाया जाए। या इसे भी छोड़ कर फल बागात के आम-केले-सेब याकि कंद-मूल-फल खाने की आदत बने, यह आगे का कैंपेन होना है।

तो हम क्या खाएं और क्या न खाएं इसकों आने वाले दशकों में जलवायु परिवर्तन की चिंता नियंत्रित करने वाली है। सोचंे घूमफिर कर कहां लौट रहे हैं। आदि मानव याकि अपने चिंपाजी की केला खाने की आदत को वापिस इक्कीसवीं सदी का इंसान अपनाने की ओर बढ़ रहा है!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ त्रकरा हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here