कुछ महीने पहले आई यूएनडीपी की रिपोर्ट ‘जेंडर सोशल नॉर्म्स इंडेक्स’ ने महिलाओं के बारे में स्थापित पूर्वाग्रहों का तथ्यपूर्ण खुलासा किया। यह रिपोर्ट 75 देशों के अध्ययन पर आधारित है, जहां विश्व की लगभग 80 फीसद आबादी रहती है। रिपोर्ट बताती है कि इन देशों में 40 फीसद से अधिक लोगों का यह मानना है कि जब अर्थव्यवस्था धीमी हो, तब नौकरियां सिर्फ पुरुषों को ही मिलनी चाहिए। इस वर्ष जून में प्रकाशित अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर की ओर से किए गए सर्वे के मुताबिक कई देशों में यह धारणा स्थापित है कि महिलाएं पुरुषों की तुलना में नौकरी की कम हकदार होती हैं। भारत और ट्यूनीशिया में ऐसा मानने वाले लोगों का प्रतिशत 80 है।
असमानता का नतीजा कोविड-19 के नकारात्मक परिणामों से जूझती विश्व अर्थव्यवस्था उन तमाम उपायों को लेकर संवेदनशील है जिनसे लोगों की नौकरियों में बहाली हो सके। यह भी सबको पता है कि श्रम बाजार में महिलाएं हाशिये पर हैं। बावजूद इसके, उनकी कहीं चर्चा भी नहीं हो रही। श्रम बाजार के पुरुषीकरण ने इस मिथ्या धारणा को स्थापित कर दिया है कि विश्व अर्थव्यवस्था की बेहतरी कुल कार्यबल में सिर्फ पुरुषों की भागीदारी से ही हो सकती है जबकि विश्व बैंक समूह की 2018 की रिपोर्ट इस धारणा को नकारते हुए बताती है कि कार्यबल में पुरुषों और महिलाओं की असमानता के चलते विश्व अर्थव्यवस्था को करीब 160 ट्रिलियन (1 लाख 60 हजार अरब) डॉलर की क्षति उठानी पड़ी है।
कार्यबल में महिलाओं की अस्वीकार्यता सदियों से चली आ रही है क्योंकि पुरुष अर्थव्यवस्था पर नियत्रंण कर अपनी सत्ता और प्रभुत्व को सुनिश्चित करते आए हैं। यही कारण है कि 18वीं सदी तक महिलाएं सिर्फ वस्त्र उद्योग से जुड़े व्यवसायों में ही संलग्न हो पाईं जहां उन्हें कम वेतन और भयावह परिस्थितियों में काम करना पड़ता था। ये परिस्थितियां तब परिवर्तित हुईं जब पहले विश्व युद्ध में सभी स्वस्थ पुरुष सेना में शामिल होने लिए चले गए। पुरुषों द्वारा खाली किए गए पदों की भरपाई महिलाओं द्वारा की गई। परिवहन, अस्पताल, उद्योग, यहां तक कि हथियार बनाने वाली फैक्ट्रियों में भी महिलाओं को शामिल किया गया। उन्हें प्रेरित करने के लिए देशप्रेम की दुहाई देते हुए अनेक प्रेरक पोस्टर दीवारों पर लगाए गए।
रूस के उद्योगों में महिलाओं का हिस्सा 43 फीसद हो गया। ऑस्ट्रिया में एक लाख महिला कर्मचारियों को शामिल किया गया। इस विश्व युद्ध में 60,000 रूसी महिलाएं बटालियन ऑफ डेथ का भी हिस्सा बनीं। फिर भी उस पुरुषवादी सोच को वे नहीं तोड़ पाईं जिसके अनुसार महिलाओं में मारक क्षमता और आक्रामकता की कमी होती है। 1918 में युद्ध समाप्ति का समय पास आते देख एक सोची-समझी नीति के तहत ब्रिटेन में ‘द रेस्टोरेशन ऑफ प्री-वार प्रैक्टिस एक्ट 1919’ की बहाली कर महिलाओं पर दबाव बनाया गया कि वे अपनी नौकरियां स्वत: छोड़ दें ताकि विश्वयुद्ध से लौटे हुए सैनिक पुनः अपना कार्यभार ग्रहण कर सकें। यही नहीं, महिलाओं पर सामाजिक दबाव बनाने के लिए 1919 में ‘द इलस्ट्रेटेड संडे हेराल्ड’ में प्रश्न किया गया ‘इज मॉडर्न वुमन हसी?’ यानी क्या आधुनिक महिला फूहड़ है?
सांस्कृतिक रूढ़िवादियों के लिए यह प्रश्न नहीं, वह अभिकथन था जिसको स्थापित करने की वे हर संभव कोशिश करते रहे, ताकि महिलाओं का आत्मबल इतना कम हो जाए कि वे स्वयं ही घर के भीतर सीमित होकर रह जाएं। अंततः कार्यबल में महिलाओं की संख्या बहुत कम हो गई और यह स्थिति दूसरे विश्वयुद्ध तक बनी रही। 1939 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू होने के बाद फिर उसी इतिहास को दोहराया गया। इस दौरान 60 लाख महिलाओं ने तमाम ऐसी भूमिकाएं निभाईं जिन पर पुरुषों का वर्चस्व था परंतु युद्ध समाप्ति के बाद महिलाओं पर फिर दबाव बनाया गया कि वे अपने पदों को छोड़ दें।
1944 में यूएस विमिन ब्यूरो के एक सर्वेक्षण में 84 फीसद महिलाओं ने युद्ध के दौरान आरंभ किए गए कार्यों को जारी रखने की इच्छा जताई। पुरुषवादी व्यवस्था का कड़वा सच यह था कि जो विज्ञापन एजेंसियां युद्ध के समय महिलाओं को श्रमबल से जोड़ने की प्रार्थना कर रही थीं, अब वे ही उन्हें अपना रोजगार छोड़ने के लिए प्रोत्साहित करती नजर आ रही थीं ताकि युद्ध से लौटे पुरुषों के लिए जगह खाली हो जाए। नतीजा यह कि 30 से 40 लाख महिलाओं ने अपने रोजगार छोड़ दिए। अमेरिकी लेखिका बेट्टी फ्रीडम ने अपनी पुस्तक ‘फेमिनिन मिस्टिक’ में लिखा कि दूसरे विश्वयुद्ध के बाद महिलाओं को यह विश्वास दिलाने की कोशिश की जाती रही कि घर की चारदीवारी में ही उनके जीवन का सारा सुख है। वे नहीं जानती थीं कि पुरुषवादी व्यवस्था के ये प्रयास दशकों बाद भी जारी रहेंगे। महिलाओं को अर्थव्यवस्था की मुख्यधारा से दूर रखने की कोशिशें आज भी की जाती हैं।
गलत मान्यताएं पिछले दिनों हुई नोटबंदी के बाद जब भारत में रोजगार कम हुए तब भी पुरुषों के लिए जगह बनी रहे, इसके लिए महिलाओं को काम छोड़ने को विवश किया गया। अध्ययन बताते हैं कि नोटबंदी के बाद उन परिवारों का प्रतिशत, जिनमें दो या अधिक सदस्य रोजगार करते हैं 34.8 से घट कर 31.8 रह गया। तब भी ज्यादातर महिलाओं ने ही रोजगार खोए। इस धारणा को स्थापित करने के प्रयास किए गए कि महिलाएं स्वयं ही रोजगार नहीं चाहतीं, परंतु यह सच नहीं है। 2018 में नंदी फाउंडेशन के एक अध्ययन में बताया गया कि भारत की आठ करोड़ किशोरी लड़कियां करियर को लेकर ढेरों उम्मीदें रखती हैं, पर उनकी उम्मीदें पूरी हो पाएंगी, कहना कठिन है क्योंकि उनके सामने वह ग्लास सीलिंग है जिसे तोड़ पाना सहज नहीं। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहा जाए कि विपदाओं और महामारियों के समय महिलाओं को श्रमबल से जोड़ने की तमाम कोशिशें की जाती हैं लेकिन स्थितियां सामान्य होते ही उन्हें पीछे धकेलने के प्रयास किए जाते हैं। किसी भी सभ्य समाज में यह स्वीकार्य नहीं होना चाहिए, परंतु बड़ी ही ढिठाई के साथ यह प्रक्रिया आज भी जारी है।
ऋतु सारस्वत
(लेखिका विश्लेषक हैं ये उनके निजी विचार हैं)