एनपीआर पर भी ऐतराज

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राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर पर केन्द्रीय कैबिनेट की मंगलवार को मुहर के बाद इस पर भी कांग्रेस सहित तमाम दलों और संगठनों ने ऐतराज जताया है। हालांकि गृहमंत्री अमित शाह ने संशय दूर करते हुए बताया कि एनपीआर से किसी की नागरिकता नहीं जाएगी। इसका एनआरसी से भी दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। एनपीआर और एनआरसी के बीच मूलभूत अंतर है। एनपीआर जनसंख्या का रजिस्टर है। इसके आधार पर अलग-अलग सरकारी योजनाएं बनती हैं लेकिन एनआरसी में हर नागरिक से दस्तावेज मांगा जाता है कि आप किस आधार पर भारत के नागरिक हैं। एनपीआर में दस्तावेज की दरकार नहीं है। व्यक्ति जो भी अपने व परिवार के बारे में जानकारी देगा, उसे मान लिया जाएगा। पर सीएए- एनआरसी के बाद एनपीआर पर भी सियासत तेज हो गई है। दिलचस्प यह है कि वर्ष 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के समय भी एनपीआर हुआ था। यह जनगणना से पहले की प्रक्रिया है। ठीक दस साल बाद इसकी कवायद हो रही है।

किसी भी राष्ट्र के लिए यह एक सर्वमान्य तरीका है, जिससे वास्तविक वस्तुस्थिति का पता चलता है और उसी आधार पर सरकार भविष्य की कार्ययोजना बनाती है। मनमोहन सरकार के जमाने में इस बाबत जो आंकड़े उपलध हुए थे, उससे ही वर्तमान सरकार को जरूरतमंदों के लिए अनुदान एवं अन्य सुविधाएं मुहैया कराने में सहूलियत हुई। यह सच है कि हरेक दशक के बाद ढेर सारी परिस्थितियां नई पैदा होती हैं। ऐसे में किसी भी सरकार के लिए नया बेंच मार्क तैयार करना तभी संभव हैए जब उसके पास ताजा अपडेट हो। पर सियासी पेंच है, इसलिए विरोध तेज हो रहा है। कांग्रेस खुद सीएए-एनआरसी से लेकर नये एनपीआर का भी विरोध कर रही है। अब उसे क्या कहेंगे ? सोनिया गांधी-राहुल गांधी सारे कांग्रेसी नेता पूरी कवायद संविधान की आत्मा पर हमला बताते हुए विरोध को हवा दे रहे हैं। बुधवार को मध्य प्रदेश के मुयमंत्री कमलनाथ ने अपने कैबिनेट साथियों के साथ भोपाल में शांति मार्च निकाला। हालांकि पत्रकारों के सवाल के जवाब में उन्होंने स्वीकार किया कि वह एनपीआर के पक्ष में हैं।

कांग्रेस अपने समय में खुद लाई थी पर मोदी सरकार इसे एनआरसी से जोड़ते हुए शुरू कर रही है, इसलिए पार्टी विरोध में है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के मुखर होने का परिणाम है कि अन्य सभी मोदी विरोधियों को ताकत मिल रही है। सियासत का आलम यह है कि मंगलवार को राहुल गांधी-प्रियंका वाड्रा मेरठ में पिछले दिनों दंगे के दौरान मौत का शिकार हुए परिजनों से मिलने पहुंचे थे। पार्टी विशेष रूप से यूपी में रिवाइवल के लिए हिंसा की भेंट चढ़े लोगों के परिवारजनों से मिलने की योजना पर सक्रिय है। किसी भी दिन प्रियंका वाड्रा कानपुर पहुंच कर पीडि़त परिवार से मिल सकती हैं। उन्हें लगता है इस तरीके से पार्टी को मजबूत किया जा सकता है। पर यह सब जब देश में अफ वाहों का बाजार गरम है, आग लगी है, तब सियासी हितों को विराम दिया जाना चाहिए। वाकई, कितनी बड़ी विसंगति है देश की सुरक्षा और उसके सरोकार के सवाल पर कुछ पार्टियां अपनी मंशा को लेकर आगे बढऩे की हड़बड़ी में हैं। ओवैसी की हड़बड़ाहट और चिंता समझ में आती है लेकिन कांग्रेस को अपनी इस ताजा भूमिका पर जरूर विचार करना चाहिए। बेहतर होता यदि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व विरोध के नाम पर हो रही हिंसा की मजम्मत करता।

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