आखिरकार वही हुआ, जिसकी आशंका थी। बात यह नहीं कि महाराष्ट्र के सिंहासन पर कौन बैठा, किसी न कि सी को तो बैठना ही था। लोकतांत्रिक प्रक्रिया को पूर्णता तब ही मिल सकती है जब जन प्रतिनिधि शासन व्यवस्था का संचालन करने लगे। सवाल यह है कि जो बैठा, वह कैसे बैठा। उद्घव ठाकरे की प्रशासनिक क्षमताओं पर फिलहाल शंका करना उचित नहीं है। लगभग छह माह पश्चात स्थिति स्पष्ट होगी। अभी तक वे अपने पिता के बनाए राजनीतिक तथा सामाजिक धरातल पर खड़े है, उन्हें कुछ नवीन करना नहीं पड़ा। इतना अवश्य हुआ है कि उन्होंने अपना परम्परागत मित्र खो दिया। जबकि बाल ठाकरे व्यक्तिगत संबंधों तथा राजनीतिक संबंधों में दूरी बना कर रखते थे। शायद ही कोई ऐसी पार्टी हो, जिनके प्रमुख नेताओं से उनकी मित्रता न हो। शरद पवार भी उनके अच्छे मित्रों में से एक थे। अपनी उग्र राजनीतिक छवि के पश्चात भी वे अपने विरोधियों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं करते थे लेकिन नेहरू-गांधी परिवार पर जमकर प्रहार करने में संकोच नही करते थे। उद्घव ठाकरे ने अपने पिता की इस विशिष्टता का त्याग किया। उन्होंने शिवसेना का नया चरित्र प्रस्तुत किया। बाल ठाकरे के निशाने पर सदा कांग्रेस तथा सोनिया गांधी रहीं। पर, उद्घव ठाकरे ने कार्यशैली तथा अपनी रणनीति को बिल्कुल उलट दिया है।
वर्तमान में सोनिया गांधी का प्रशस्ति गान किया जा रहा है। बाल ठाकरे का पौत्र आदित्य ठाकरे सोनिया गांधी के दरबार में कृतज्ञता प्रकट करने के लिए प्रस्तुत होता है और भारतीय राजनीति में उनके प्रभाव को स्वीकार करता है। दूसरी ओर सामना के तरकश के तीर भाजपा की ओर चल रहे हैं। जिस प्रकार से भाजपा नेताओं पर टीका-टिप्पणी की जा रही है, यह शिवसेना के मूल चरित्र से पृथक है। दावा किया जा रहा है कि राज्य में नवीन युग का आरम्भ हो गया है। युगांतरकारी राजनीति के गम्भीर मायने हैं। क्या राजनेताओं के व्यवहार में परिवर्तन आ गया है। क्या राज्य के वर्तमान सरकार वह करने जा रही है, जिसकी कल्पना पहले कभी नहीं की गई। साफ है कि जब साधन पवित्र नहीं होता तो साध्य भी पवित्र नहीं हो सकता। भारत में गठबंधन की राजनीति होती है, यह समय की आवश्यकता भी है। महाराष्ट्र में चुनाव से पूर्व गठबंधन हुए, सभी ने अपने-अपने घोषणा पत्र भी जारी किए। कुछ बातों को छोडक़र वैचारिक आधार पर कहीं कोई मेल नहीं था। भाजपा और शिवसेना के चुनावी संकल्पों में काफी समानता थी, वे अलग है लेकिन जहां असमानता थी, वे सत्ता सहयोगी हैं। शिवसेना संविधान की प्रस्तावना में निहित पंथनिरपेक्षता के प्रति लगातार अनास्था प्रकट करती आई है, उसमें चुनाव प्रचार में भी उसी विचार को आगे रखा।
सामना मे सोनिया गांधी तथा राहुल गांधी पर जमकर प्रहार किए जाते रहे। यही चुनावी सभाओं में भी किया गया। लेकिन जब कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस के आशीष से सत्ता मिल गई तो पहली प्रेस वार्ता में उद्घव ठाकरे ने अपनी पार्टी की आधारभूत वैचारिकी पर ही प्रहार किया और हिंदुत्व पर प्रश्न किए जाने पर क्रोधित हो गए, साथ ही पत्रकार से यह प्रश्न करने लगे कि भारतीय संविधान की प्रस्तावना में क्या है। इसका अर्थ यह है कि हिंदुत्व उनके लिए गुजरे जमाने की बात हो चुकी है। महाराष्ट्र और गुजरात भारत के दो ऐसे राज्य है जहां हिंदुत्व राजनीति भविष्य का निर्धारण करता है। पार्टी कोई सी भी हो, वहां उदार हिंदुत्व हर जगह देखा जा सकता है। ठाकरे प्रेस वार्ता में हिंदुत्व को सर्वधर्म समभाव के रूप में परिभाषित कर सकते थे। लेकिन उन्होंने उसका उच्चारण करना भी उचित नहीं समझा। शिवसेना अपने मुखपृष्ठ सामना में यह मांग करती रही थी कि पंथनिरपेक्षता शब्द को संविधान से निकाला जाए, यह तुष्टीकरण की राजनीति को प्रोत्साहित करता है। लेकिन सत्ता आते ही धर्मनिरपेक्षता अच्छी लगने लगी है। इतना अवश्य हुआ कि उन्होंने यह बताया कि शिवाजी की राजधानी रायगढ़ के दुर्ग की मरम्मत के लिए मंत्रिमंडल की प्रथम बैठक में बीस करोड़ के अनुदान का प्रस्ताव पारित हुआ है। अपने समर्थकों को यह बताना आवश्यक था कि भले ही वे हिंदुत्व का नाम तक लेना नहीं चाहते लेकिन हिंदुत्व के पुरोधा और हिंदृ स्वराज्य के प्रेरक शिवाजी की स्मृतियों पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दे रहे हैं।
जबकि रायगढ़ किले की मरम्मत तथा उसके सौंदर्यकरण के लिए गत सरकार द्वारा 600 करोड़ की एक विशाल योजना तैयार की गई थी, वहां कार्य चल भी रहा है। उसी अनुक्रम में बीस करोड़ की राशि आवंटित की गई। यह ठाकरे की योजना नहीं है, 20 करोड़ की राशि अयोजनागत व्यय है, यह तो किसी भी सरकार को करना ही था। सन 1674 में बने इस विशाल किले को अंग्रेजों द्वारा सन 1818 में काफी हद तक तोड़ दिया गया था, पिछली सरकार ने इसका वास्तविक स्वरूप देने की योजना बनाई थी। बाल ठाकरे की इच्छा थी कि महाराष्ट्र में हाई स्पीट रेल कॉरिडोर का निर्माण किया जाए ताकि टोकियो की तरह दूर-दूर से लोग नौकरी करने के लिए अन्य नगरों तथा महानगरों में आ जा सके ताकि लोगों का पलायन रूके । भारत सरकार द्वारा जापान के सहयोग से उस कारिडोर का निर्माण कार्य आरम्भ हो गया है जिस पर 1.08 लाख करोड़ का व्यय होने का अनुमान है। यह कॉरिडोर गुजरात और महाराष्ट्र राज्यों के भीतर होगा। इस पर 320 से 350 किलोमीटर की गति से रेल गाड़ी चल सकेगी।
अनुबंध के अनुसार महाराष्ट्र सरकार को भी कुल लागत का कुछ अंश देना है। पर, कांग्रेस तथा राष्ट्रवादी कांग्रेस के दबाव में शिवसेना ने इस विशाल परियोजना के लिए धन देने से इंकार कर दिया। उसका कहना है कि यह धन किसानों को दिया जाएगा। जबकि सरकार के पास अनेक ऐसे मद है, जिस पर व्यय कटौती की जा सकती थी। उस पर ध्यान न देकर विकास की एक महत्वपूर्ण योजना को बंद करने की जिद की जा ही है। जो शिवसेना यह नारा लगाती थी कि भारत में रहना होगा तो वंदे मातरम कहना होगा। उसी शिवसेना नीत सरकार में विधानसभा का विशेष सत्र बिना वंदेमातरम के आरम्भ हुआ। भारत के संसदीय इतिहास की यह पहली और खेदजनक घटना है। महाराष्ट्र में विधायको तथा मंत्रियों को मिलने वाली सुविधाओं को कम करने का प्रस्ताव नहीं रखा गया। पिछली सरकार में विधायकों के मूल वेतन में 166 प्रतिशत की वृद्घि की गई थी, कुछ विधायकों ने इसका विरोध भी कि या। वे चाहते थे कि यह धन किसानों को दिया जाए। उस समय न तो शिवसेना और न ही उसके साथ सत्ता में भागीदार दलों को किसानों की याद आई। यदि हम अतीत में जाएं तो ज्ञात होता है कि शरद पवार और सोनिया गांधी के मध्य तीखा टकराव रहा है।
अशोक त्यागी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है ये उनके निजी विचार हैं)