उलट-फेर तो परिवारों में मचेगी

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पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया। उसमें कोर्ट ने कहा कि बेटियों को भी बेटों की तरह पैतृक संपत्ति में समान हिस्सेदार माना जाएगा। उसके बाद से मीडिया मे ऐसी खबरें हैं कि भारत के अति धनी परिवारों में हलचल है। वहां प्रोपर्टी का ट्रांसफर शेयरों की हिस्सेदारी के रूप में होता है। ऐसा समझा जा रहा है कि अब बड़े उद्योगपतियों को अपने शेयर होल्डिंग में बड़े पैमाने पर बदलाव करने होंगे, जिसका असर उनके कारोबार के प्रबंधन पर भी पड़े बिना नहीं रहेगा। गौरतलब है कि कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि भले ही हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के लागू होने से पहले ही पिता की मृत्यु हो गई हो, तो भी उनकी बेटियों का पैतृक संपत्ति पर अधिकार होगा। कोर्ट ने उन याचिकाओं पर अपना फैसला सुनाया, जिनमें पूछा गया था कि अगर हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 के लागू होने के पहले पिता का देहांत हो गया है, तो वह कानून परिवार पर लागू होगा या नहीं। जस्टिस मिश्रा की अगुवाई वाली बेंच ने अपने फैसले में साफ कर दिया है कि यह कानून हर परिस्थिति में लागू होगा।

हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 बेटियों को पैतृक संपत्ति पर बराबरी का अधिकार देता है। इसलिए अगर कानून संशोधन से पहले भी किसी पिता की मृत्यु हो गई हो तब भी उसकी बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबर हिस्सा मिलेगा। जस्टिस मिश्रा ने कहा- ‘बेटों की तरह बेटियों को भी बराबर के अधिकार दिए जाने चाहिए। बेटी अपने पिता की संपत्ति में बराबर हकदार हैं, भले ही उसके पिता जीवित हों या नहीं। जानकारों के मुताबिक इस फैसले का मतलब ये होगा कि अगर बेटी के बच्चे चाहें, तो वे अपनी मां के पिता की पैतृक संपत्ति में हिस्सेदारी का दावा कर सकते हैं। 2005 में हिंदू उत्तराधिकार कानून- 1956 में संशोधन किया गया था। इसके तहत पैतृक संपत्ति में बेटियों को बराबरी का हिस्सा देने की बात कही गई थी। संशोधित अधिनियम 9 सितंबर 2005 को लागू हो गया था। अब कोर्ट के फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि 9 सितंबर 2005 के पहले अगर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई हो और संपत्ति का बंटवारा बाद में हो रहा हो, तब भी बेटी को हिस्सा देना पड़ेगा। जाहिर है, यह परिवारों में उलटफेर मचा देने वाला निर्णय है।

चिंता की बात पुलिस हिरासत में मौत भी है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की एक हालिया रिपोर्ट के मुताबिक इस साल जनवरी से जुलाई तक पुलिस हिरासत की 53 मौतें दर्ज की गईं। आयोग लंबे समय से इस पर अपनी चिंता और क्षोभ जाहिर करता रहा है। सिविल सोसायटी की तरफ से भी चिंताएं जाहिर की जाती रही हैं। मगर ऐसा लगता है कि सरकारों पर उससे कोई फर्क पड़ा है। दरअसल, मानवाधिकार आयोग के सुझाव, सिफारिशें और नाराजगियां जस की तस आलमारियों की धूल फांक रही हैं। आंकड़ों के मुताबिक पिछले एक दशक में- मार्च 2020 तक कम से कम 17,146 लोग न्यायिक और पुलिस हिरासतों में मारे गए। ये औसत हर रोज पांच मौतों का आता है।

इनमें से 92 प्रतिशत मौतें 60 से 90 दिनों की अवधि वाली न्यायिक हिरासतों में हुईं। बाकी मौतें पुलिस हिरासत में हुईं, जो 24 घंटे की अवधि की होती है या फिर मजिस्ट्रेट के आदेश पर 15 दिन तक बढ़ाई जा सकती है। न्यायिक हिरासत में होने वाली सभी मौतें टॉर्चर, पिटाई और जेलकर्मियों की ज्यादतियों की वजह से नहीं हुईं, बल्कि इनके पीछे कैदियों की बीमारी, इलाज में देरी, उपचार में उपेक्षा, खराब रहनसहन, मनोवैज्ञानिक समस्या या वृद्धावस्था जैसे अन्य कारण भी हो सकते हैं। मानवाधिकार आयोग के निर्देशों के मुताबिक ऐसी मौतों की सूचना 24 घंटे में मुहैया करानी होती है। लेकिन ऐसा होता नहीं है। दोहरी मार इन निर्देशों पर ये है कि रिपोर्ट पेश न कर पाने की सूरत में दंड का भी कोई प्रावधान नहीं है।

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