..इस सिरे से उस छोर तक नज़ारों, नज़रों और लोगों के मेले ही मेले

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एक ठेले वाले को राह पर रुककर, ज़रा दम लेते देखा, तो समझ में नहीं आया कि क्या हुआ। लगा थकान होगी, या शायद बीमार हो, लेकिन बाद में समझ में आया कि वहां से सड़क कुछ चढ़ाई लेती है, जिसके कारण ठेलना थोड़ा कठिन होना था, इसलिए वह दम भरने को रुका था। हैरत हुई। वह चढ़ाई कभी महसूस क्यों नहीं हुई? दिखी भी नहीं। — पग-पग पर यह धरा बदलती है, हम पूरे दृश्य में खोए इन बारीकियों से चूक जाते हैं। नदी किनारों से अब अधिकांश बसाहटें दूर हैं, इसलिए जब नदी को देखते भी हैं, तो उसमें कितना पानी है, यही देख पाते हैं। वो भी दूर से। प्रवाह कैसा है, तट कैसे हैं, उसके किनारे बैठे लोग नदी का किस तरह आनंद ले रहे हैं, कोई नदी पार जा रहा है, नाव है वहां, यह सब देखने समय देना होता है, धरती की इस महत्वपूर्ण देन का लुत्फ़ लेने के लिए। वही देन, जो दरअसल एक वरदान है। वैज्ञानिक दूसरे ग्रहों पर इसी खोज में तो जुटे रहते हैं कि वहां पानी है कि नहीं। नावों में बैठकर नदी में विचरते हुए गीत-कविताएं रचने वाले कवियों को हमने जाना है।

मल्लाह भी गा उठता है, जल की शक्ति को नमन करता है। जो सबकुछ बहा ले जा सकता है, वो बहने में मदद कर रहा है, आभार है उसका। यह अनुभव हमारी अनूठी दुनिया में ही मुमकिन है। समुद्र की लहरों के दृश्य सबसे शक्तिशाली नज़ारे कहे जा सकते हैं। लहरें बड़ी आवाज़ करती हैं। इन आवाज़ों को सुनने के लिए वहां रुकना होता है। शांत रहकर समुद्र के पास। लहरें एक के पीछे एक आती हैं, हाथ पकड़कर रेल-रेल खेलते बच्चों की तरह। किनारे को छूती हैं और शरारती बच्चों-सी चुहल करती भाग जाती हैं। खलबली से भरे समुद्र के किनारे मन शांत हो जाता है। यह नमन है उस तटहीन विस्तार को, जिसके सामने मानव रेत के कण बराबर भी नहीं। पहाड़ी लोगों को नृत्य करते देखा है आपने? बड़े हौले-हौले क़दम रखते हुए, हाथों को थाम कड़ियां बनाए, एक क़तार में नाचते हैं। उनके चेहरे पर अनेकानेक भाव नहीं आते, वे केवल अपने वाद्यों की ताल पर शरीर की बहुत हल्की गति से नृत्य करते हैं। देखने में आसान लगता है, लेकिन इतनी सहज लय पाना आसान है नहीं।

यही पहाड़ों की प्रकृति है। हौले-हौले चलने को प्रेरित करती। यहां का जीवन सरल नहीं। बहुत सारी कठिनाइयों को संभाले रहते हैं पहाड़। चट्‌टानों के बीच मिट्‌टी, मिट्‌टी में पेड़ों की पकड़ और ऊंचाइयों की बंदिशें। पानी को रोक नहीं, मिट्‌टी का छोड़ नहीं। पहाड़ों से आसमान नज़दीक लगता है। सुख के मौसम में बादल यहां डेरा डालते भी हैं। पहाड़ों की क़तारों की ऊंचाई, इनकी ढलान पर फैले हरियाली के साम्राज्य के सामने हर नेमत फीकी है। — हमें मौसम भी मिले हैं। हर तरह का रंग लिए। जाने कितनी मुद्दतों से हम यहां रह रहे हैं। इस धरा को हमने अपने रंग देने की बेज़ा कोशिश भी की है। ज़रूरत नहीं है शायद। जैसी हमें मिली है, वैसी नेमत शायद कहीं और ना हो। अब तक तो दिखी नहीं। सो इसे इकलौती मान कर नाज़ कर सकते हैं। और फिर इस धरती के हर कोने के बाशिंदे यानी हम सब भी तो कुछ ना कुछ वैविध्य लेकर आए ही हैं। इस सिरे से उस छोर तक नज़ारों, नज़रों और लोगों के मेले ही मेले। मान करें, तो, इठलाना चाहें, तो दुआ करें कि मेले लगे रहें। अपने खरे, असली रूप में।

रचना समंदर
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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