देश में इतने चुनाव होते रहते हैं कि लोगों को इस बारे में अन्यथा विचार करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इस तथ्य को सिर्फ इस बात से समझा जा सकता है कि 2014 के पिछले लोकसभा चुनाव के बाद पांच साल में देश में 27 चुनाव हो चुके हैं। सो, कायदे से पांच साल के बाद हो रहे लोकसभा चुनाव को भी एक सामान्य चुनाव मानना चाहिए पर ऐसा नहीं है।।
भारत में चुनाव को आम लोग रूटीन की तरह लेते हैं। देश में इतने चुनाव होते रहते हैं कि लोगों को इस बारे में अन्यथा विचार करने की जरूरत नहीं पड़ती है। इस तथ्य को सिर्फ इस बात से समझा जा सकता है कि 2014 के पिछले लोकसभा चुनाव के बाद पांच साल में देश में 27 चुनाव हो चुके हैं। सो, कायदे से पांच साल के बाद हो रहे लोकसभा चुनाव को भी एक सामान्य चुनाव मानना चाहिए ऐसा नहीं है। इस बार का चुनाव हर बार होने वाले चुनावों या पिछले पांच साल में राज्यों में हुए चुनावों से कुछ अलग है, खास है और इसलिए कहा जा सकता है कि ऐतिहासिक है। इसके ऐतिहासिक होने के कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि संभवतः पहली बार कोई प्रधानमंत्री अपनी सरकार बचाने के लिए इस तरह करो या मरो के अंदाज में चुनाव लड़ रहा है।
दूसरा कारण यह है कि 1977 के बाद पहली बार किसी सरकार को सत्ता से हटाने के लिए विपक्षी पार्टियां इस तरह एकजुट हो रही हैं। तीसरा कारण यह है कि संभवतः पहली बार सेना के शौर्य और पराक्रम को चुनाव का मुद्दा बनाया जा रहा है। चौथा कारण यह है कि पहली बार चुनाव से पहले पक्ष और विपक्ष में इतना बड़ा गठबंधन हो रहा है। विचारधारा को किनारे करके पार्टियां तालमेल कर रही हैं। इस वजह से चुनाव बहुत दिलपस्प हो गया है। भारत में लोकसभा चुनाव के बाद अनिवार्य रूप से सत्ता परिवर्तन नहीं होता है। 1984 तक हर चुनाव के बाद कांग्रेस की ही सरकार बनती थी। उसके बाद भी दो बार ऐसे मौके आए, जब सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार में वापसी हुई। 1999 में अटल बिहारी और 2009 में मनमोहन सिंह की सरकार की सत्ता में वापसी हुई थी। उसके दस साल बाद 2019 में नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में वापसी के लिए चुनाव लड़ रही है। हैरानी की बात है कि न तो 1999 में वाजपेयी ने और न 2009 में मनमोहन सिंह ने चुनाव को करो या मरो वाला बनाया था। कभी ऐसा नहीं लग कि अगर सरकार की सत्ता में वापसी नहीं हुई तो देश तबाह हो जाएगा। नरेन्द्र मोदी ने फिलहाल ऐसा ही नैरेटिव बनाया है कि अगर सत्ता में वापस नहीं लौटे तो देश बरबाद हो जाएगा और हिन्दू तो बचेंगे ही नहीं। इस नैरेटिव के दम पर देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं को एकजुट करने का प्रयास भाजपा कर रही है।
इसके लिए विपक्ष हिन्दू और देश विरोधी दोनों ठहराने की कहांनियां का प्रचार किया जा रहा है। विपक्ष को भारत विरोधी और हिन्दू विरोधी दिखाने के लिए सेना के शौर्य और पराक्रम को मुद्दा बनाया जा रहा है तो चुनाव के हर नैरेटिव में पाकिस्तान को घसीटा जा रहा है। विपक्ष को सेना का विरोधी और पाकिस्तान परस्त बताने का अभियान चल रहा है। ऐसा पहली बार हो रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा के विरोधियों को देश का विरोधी बताया जा रहा है। मोदी खुद को 130 करोड़ भारतीय बता रहे हैं। इसके लिए पारंपरिक और सोशल मीडिया दोनों का इस्तेमाल किया जा रहा है। पहली बार भारत में चुनाव में इतने बड़े पैमाने पर तकनीक और सोशल मीडिया का इस्तेमाल किया जा रहा है। पर अफसोस की बात है कि किसी सकारात्मक मकसद के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जा रहा है। नफरत, युद्ध हिंसा और निजी आपेक्ष के लिए इसका इस्तेमाल हो रहा है।
शंशाक राय
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)