इस कॉमन मैन का जवाब नहीं था

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यह महीना एक तरह से आम आदमी का महीना है। 24 दिसम्बर 1951 को उस ‘कॉमन मैन’ का जन्म हुआ जिसमें इस देश के साधारण और कमजोर आदमी ने अपना अक्स देखा। जिसके चेहरे की रेखाओं में हमने एक लंबे समय तक अपना यथार्थ देखा। यहां प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर.के लक्ष्मण के कार्टून करैक्टर ‘कॉमन मैन’ की बात हो रही है, जो इतिहास का हिस्सा होकर भी हमारे वर्तमान में घुला- मिला है। शायद ही कोई काल्पनिक चरित्र जनता के मन-मस्तिष्क में ऐसी जगह बना पाया हो। आज उसकी मूर्तियां हैं और वह डाक टिकट पर मौजूद है। अब से 68 साल पहले यह चरित्र ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’ में प्रकट हुआ। शुरू में वह बंगाली, तमिल, पंजाबी या फिर किसी और प्रांत के व्यक्ति की शक्ल में आता था। पर जल्द ही उसकी पहचान एक औसत हिंदुस्तानी की बन गई और वह अपने टेढ़े चश्मे, मुचड़ी धोती, चारखाने के कोट और सिर पर बचे चंद बालों से पहचाना जाने लगा। 1985 में लक्ष्मण ऐसे पहले भारतीय कार्टूनिस्ट बन गए जिनके कार्टूनों की लंदन में एकल प्रदर्शनी लगाई गई। बकौल लक्ष्मण, उनकी कंपनी के मैनेजर पीसी जैन ने एक बार उनसे कहा कि ‘यदि मैं आम आदमी के दृष्टिकोण, उसकी समझ को ध्यान में रखकर कार्टून बनाऊं तो वे खूब लोकप्रिय और पठनीय होंगे। तब मैंने कॉमन मैन की शुरुआत की। ‘लक्ष्मण बताते है कि’ मेरा आम आदमी बेहद असरदार है।

वह आम जन के हर दुख-दर्द से वाकिफ है और देश की अस्सी प्रतिशत जनता की तरह सब कुछ चुपचाप देखते रहने को मजबूर है।’ 24 अक्टूबर 1921 को मैसूर में जन्मे लक्ष्मण का पूरा नाम रासीपुरम कृष्णस्वामी अय्यर लक्ष्मण था। पांच साल की उम्र से ही स्केचिंग करने वाले लक्ष्मण 12-13 की उम्र से ही अखबारों में छपने लगे थे। स्कूल की पढ़ाई के बाद वह मुंबई के प्रख्यात जेजे स्कूल ऑफ आर्ट में पढऩा चाहते थे। उसमें दाखिले के लिए आवेदन दिया, जिसे कॉलेज के डीन ने यह कहकर खारिज कर दिया कि उनमें ड्रॉइंग बनाने की पर्याप्त योग्यता-क्षमता नहीं है। लक्ष्मण के बड़े भाई आर. के . नारायण जाने- माने अंग्रेजी कथाकार थे, जिनकी रचनाओं ‘गाइड’ और ‘मालगुडी डेज’ ने लोक प्रियता की ऊंचाइयां छुई थीं। आरके लक्ष्मण कहते हैं, ‘प्रबुद्ध संपादक एमवी कामथ ने एक बार कहा था कि कितना अच्छा होता यदि देश के राजनेता तुम्हारे कॉमन मैन की तरह गूंगे होते। तब मैंने जवाब दिया था कि राजनेताओं के वक्तव्य, उनकी हरकतें, उनकी जनसेवा के पीछे छिपी भावना ही मेरे व्यंग्य चित्रों को गति और ताजगी देती है। हम कार्टूनिस्ट उनकी उजली पोशाक को हटाकर उनकी असलियत सामने रखने की कोशिश करते हैं। लक्ष्मण ने राजनीति को निशाने पर लिया। उनका कहना था, आजादी के बाद राजनेताओं ने एक आदर्श लोक तांत्रिक भारत की कल्पना की, जहां सभी प्रकार की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक समानता हो।

प्रत्येक व्यक्ति शिक्षित, समृद्ध तथा स्वस्थ हो। मगर पचास साल बाद भी आम आदमी के जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आया है। दैनिक उपभोग की वस्तुओं का अभाव, महंगाई की मार, भारी कुपोषण और न जाने कितने कारण हैं जिन्होंने आम आदमी की हालत अत्यंत दयनीय बना दी है। इस सबके लिए प्रशासनिक भ्रष्टाचार, लापरवाही और शक्ति शाली लोगों का स्वार्थ जिम्मेदार है जो स्वतंत्र भारत में सरकारें बनने के साथ ही शुरू हो गया था।’ वह मानते थे कि आम आदमी का जीवन स्तर उन्नत करने की जिम्मेदारी सरकार की है। लक्ष्मण ने देश में व्याप्त भ्रष्टाचार पर व्यंग्य करते हुए कहा था कि ‘इस क्षेत्र में भी काफी प्रगति हुई है। पहले घोटाले हजारों में होते थे, फिर लाखों में होने लगे और अब करोड़ों में होते हैं।’लक्ष्मण कहते हैं कि ‘कार्टूनिस्ट की तुलना बीरबल या तेनालीराम जैसे दरबारी मसखरों से नहीं की जा सकती। एक प्रजातांत्रिक ढांचे में उसकी भूमिका काफी बदली हुई है। उसका काम होता है अभिव्यक्ति के अधिकार का प्रयोग करते हुए व्यंग्य करना। यानी सत्ता की तलवार के नीचे रहकर डरते हुए नहीं, बल्कि अपने जन्मसिद्ध अधिकार की तरह व्यंग्य करना। उसे अधिकार है आलोचना का, भत्र्सना व शिकायत का, और प्रशासन व नेताओं के कामकाज में विसंगतियां दिखाने का।’ आगे वे क हते हैं कि ‘कार्टून बनाना दरअसल शिकायत करने और असहमति जताने की कला है। इस कला के तहत मजाकिया तेवरों में चीजों यानी मुद्दों की एक स्वस्थ पड़ताल की जाती है।’

इससे बड़ी बात क्या हो सकती है कि टाइम्स ऑफ इंडिया के 150 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में जो स्मारक डाक टिकट जारी हुआ, उस पर भी लक्ष्मण का ही एक कार्टून था। इस पर प्रतिक्रि या देते हुए उन्होंने कहा था कि ‘हां, मैंने इतने लंबे समय तक मेहनत की है। मैं भूला नहीं हूं कि हम रंगीन कांच के शीशों से दुनिया देख सकते हैं। लेकिन उन पक्षियों के प्रति मेरी दिलचस्पी कम नहीं हुई है, जो हमारे चारों तरफ शोर मचाते हैं।’ टाइम्स ऑफ इंडिया में लक्ष्मण को काम करने की जो स्वायत्तता मिली, वह किसी भारतीय पत्रकार को कहीं और शायद ही मिल सके । लक्ष्मण हर दिन को आखिरी दिन की तरह जिया करते थे। एक बार उन्होंने कहा था कि वे रोज एक कार्टून बनाते हैं लेकिन अपने काम को तकलीफ देह मानते हैं। उन्होंने कहा था कि ‘हर सुबह मैं भुनभुनाता हूं, इस्तीफा देने की सोचता हूं और बड़ी मुश्किल से खुद को खींचकर ऑफिस तक ले जाता हूं। परंतु जब काम पूरा करके लौटता हूं तो मुझे अपना काम अच्छा लगने लगता है।’ आर के लक्ष्मण की यह साधना तब भी चलती रही जब वे अंतिम रूप से अस्पताल में भर्ती थे। वहां लेटे-लेटे वे समाचारों से इतर आम आदमी के बीच की खबरों में हास-परिहास गढ़ते थे। कई बार लगता है, लक्ष्मण का आम आदमी खुद लक्ष्मण ही हैं, जिन्होंने किसी कलाकार-पत्रकार की तरह ही लम्हों, परेशानियों और विसंगतियों को अपने भीतर पूरी गहराई से जिया और महसूस किया।

सचिन बत्रा
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

 

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