उत्तर प्रदेश की सरकार ने निजी विश्वविद्यालयों को नियंत्रित करने के लिए एक अध्यादेश को मंजूरी दी है। मंगलवार को कैबिनेट की बैठक में उत्तर प्रदेश निजी विश्वविद्यालय अध्यादेश, 2019 को मंजूरी दी गई। सरकार की नजर में यह कानून इतना जरूरी है कि 18 जुलाई से शुरू होने वाले विधानसभा सत्र तक इंतजार नहीं किया गया। सरकार ने अध्यादेश के जरिए कानून लागू कर दिया है और 18 जुलाई से शुरू होने वाले सत्र मे इसे कानून का रूप दिया जाएगा। इस कानून में निजी विश्वविद्यालयों को नियंत्रित करने वाली कई बातों के साथ एक खास बात यह है कि अब विश्वविद्यालयों को यह अंडरटेकिंग देनी होगी कि वे राष्ट्र विरोधी किसी गतिविधि में शामिल नहीं होंगे, अपने कैंपस में राष्ट्र विरोधी गतिविधियों की इजाजत नहीं देंगे और किसी राष्ट्र विरोधी गतिविधि में अपने नाम का इस्तेमाल नहीं होने देंगे।
उत्तर प्रदेश सरकार के इस कानून में सबसे पहली कमी तो यह है कि उसने नहीं बताया है कि राष्ट्र विरोधी गतिविधि किसे माना जाएगा? अगर छात्र राष्ट्र राज्य के उभरने और बिखरने की प्रक्रिया पर विचार विमर्श करेंगे तो क्या उसे राष्ट्र विरोधी माना जाएगा? क्या किसी वाद विवाद में अगर कोई छात्र पाकिस्तान की तरफदारी करता है या नक्सलवाद पर किसी परिचर्चा में नक्सलियों के प्रति मानवीय भावना का प्रदर्शन करता है या कश्मीर और पूर्वोत्तर के उग्रवादियों, चरमपंथियों पर चर्चा करते हुए कुछ ऐतिहासिक सचाईयों का जिक्र करता है तो क्या उसे राष्ट्र विरोधी माना जाएगा? असल में राष्ट्र विरोध के मुद्दे को इतना खुला रखा गया है कि अपनी विचारधारा में फिट नहीं होने वाले किसी भी छात्र को उसके खांचे में फिट कर दिया जाएगा और सजा दे दी जाएगी।
दूसरी खामी यह है कि आखिर इस कानून की अलग से क्या जरूरत है, जब राष्ट्र विरोध से निपटने के दूसरे कई कानून मौजूद हैं? ध्यान रहे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में अफजल गुरू की बरसी के कथित कार्यक्रम में भारत विरोधी और पाकिस्तान समर्थक नारों को लेकर जो कार्रवाई हुई वह पुराने कानूनों के आधार पर ही हुई। उसी कानून के तहत अनेक छात्र गिरफ्तार किए गए और उनके ऊपर मुकदमा चल रहा है। निजी विश्वविद्यालयों में भी इन्हीं कानूनों से काम चल सकता है पर अलग से कानून बनाया गया तो निश्चित रूप से उसका कोई न कोई राजनीतिक मकसद है।
बारीकी से देखें तो पिछले पांच साल में हैदराबाद यूनिवर्सिटी से लेकर जेएनयू और दिल्ली यूनिवर्सिटी से लेकर इलाहाबाद विश्वविद्यालय तक छात्र राजनीति में बड़ा उबाल आया हुआ है। रोहित वेमुला की आत्महत्या, कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी और नेहा यादव के निष्कासन तक हर मामले में कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टी सीधे शामिल है या राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ का छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद शामिल है। पर यह सिर्फ छात्र राजनीति से जुड़ा मामला नहीं है, बल्कि इसका दायरा ज्यादा व्यापक है। यह विश्वविद्यालयों में होने वाली बौद्धिक बहसों और विश्वविद्यालयों से उठने वाली असहमति की आवाजों को नियंत्रित करने के प्रयासों से जुड़ा है। यह छात्रों को एक जैसी सोच में ढालने के प्रयासों का हिस्सा है। यह कैंपस पर राजनीतिक नियंत्रण का प्रयास है।
उत्तर प्रदेश ने यह कानून प्रदेश के मौजूदा 27 विश्वविद्यालयों और भविष्य में बनने वाले निजी विश्वविद्यालयों के लिए लागू किया है। हालांकि पिछले पांच साल के सारे विवाद सरकारी विश्वविद्यालयों के कैंपस से जुड़े रहे हैं। पर वहां वैचारिक बहसों और असहमति की आवाजों को नियंत्रित करने का काम दूसरे तरीके से हो रहा है। वहां खास विचारधारा के कुलपति और प्रोफेसर आदि बहाल करके वैचारिक विविधता को कमजोर किया जा रहा है तो निजी विश्वविद्यालयों में कानून के जरिए यह काम किया जाएगा। जबकि यह भी तथ्य है कि निजी विश्वविद्यालयों में ऐसी बहसों की गुंजाइश बहुत कम होती है। वहां भारी भरकम फीस जमा करके दाखिला लेने वाले छात्र राष्ट्र विरोध तो छोड़िए राष्ट्रवाद की बहसों में ही नहीं पड़ते। उन्हें तो डिग्री और नौकरी की चिंता रहती है। फिर भी योगी सरकार ने उन पर राष्ट्र के खिलाफ जाने का शक बनवा दिया।
अजीत द्विवेदी
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं