इमरान खान का बड़बोलापन

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पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान नियाजी के एक बयान से वहां की सियासत में बवाल मचा हुआ है। यह बयान पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के बारे में था। इस हिस्से में पाकिस्तान अपने संविधान के हिसाब से चुनाव प्रक्रिया की औपचारिकता पूरी करता है। रविवार को इस क्षेत्र में विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हुआ था।

यह मतदान विधानसभा की 53 सीटों के लिए हुआ था। इनमें आठ सीटों पर सदस्यों का चुनाव मनोनयन से होता है। आठ में से पांच महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। मतदान से पहले इमरान खान अपनी पार्टी का प्रचार करने के लिए वहां पहुंचे थे। बड़बोलेपन और अपने बयानों के लिए यूटर्न लेने के लिए उपहास का केंद्र बन चुके इमरान ने ऐसा वादा कर दिया जो वहां के संवैधानिक जानकारों के हिसाब से कभी संभव ही नहीं है।

जाहिर है कि प्रधानमंत्री ने अपनी पार्टी की स्थिति मजबूत करने के लिए ऐसा कहा होगा। लेकिन उन्हें अंदाजा नहीं होगा कि उनका यह भाषण उनके लिए मुसीबत बन जाएगा। कमोबेश सारी विपक्षी पार्टियों ने इमरान के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है कि उन्होंने संवैधानिक पद पर रहते हुए संविधान की भावना के विरुद्ध लोगों को उकसाया।

दरअसल इमरान ने शुक्रवार को कहा कि दो जनमत संग्रह कराए जाएंगे। पहले संग्रह में लोगों से यह पूछा जाएगा कि वे पाकिस्तान में रहना चाहते हैं या भारत के साथ जाना चाहते हैं। दूसरे जनमत संग्रह में अवाम से राय ली जाएगी कि वह पाकिस्तान में विलय पसंद करेगी या फिर आजादी चाहती है। लेकिन पाक अधिकृत कश्मीर का जो संविधान है, उसमें प्रत्येक राजनीतिक दल के लिए कहा गया है कि वे पाकिस्तान में विलय के अलावा कोई और बात कर ही नहीं सकते।

इतना ही नहीं, हर निर्वाचित विधायक को यह शपथ पत्र देना होता है कि वह पाकिस्तान में विलय का समर्थन करता है। यह एक किस्म से जबरिया समर्थन लेने की श्रेणी में आता है। इमरान खान ऐसा करके पाकिस्तानी संविधान को ही चुनौती देते दिखाई देते हैं।

उस संविधान का अनुच्छेद-257 कहता है कि कश्मीरी जनता पाकिस्तान में अपने विलय का फैसला करेगी (उनके संविधान में इसे पूरा जम्मू-कश्मीर कहा गया है) तो उस राज्य की तकदीर का फैसला जनता की इच्छा का सम्मान करते हुए किया जाएगा। एक तरफ मुल्क का संविधान जन भावनाओं का सम्मान करता दिखाई देता है तो दूसरी ओर कश्मीर के अपने संविधान में शर्त रखता है कि किसी नागरिक को पाकिस्तान में विलय के खिलाफआवाज उठाने की आजादी नहीं है।

असुरक्षित पाकिस्तान को वहां के निर्वाचित विधायकों से एक हलफनामा भरवाने की जरूरत क्या है कि वे खुद को पाकिस्तानी ही मानें। अब हकीकत पर आइए। असलियत यह है कि वहां देश और प्रदेश का संविधान कोई मायने नहीं रखता। पाक अधिकृत कश्मीर की तथाकथित विधानसभा के नवनिर्वाचित सदस्य अपने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति का चुनाव करते हैं।

कायदे से उन्हें ही इस क्षेत्र और आबादी के बारे में अंतिम निर्णय करना चाहिए क्योंकि वे अवाम के नुमाइंदे हैं। लेकिन ऐसा नहीं होता। यह कठपुतली सरकार ही होती है क्योंकि इसके ऊपर पाकिस्तान ने एक कश्मीर काउंसिल बनाई है। इसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं। इसमें 14 सदस्य होते हैं। इनमें छह सदस्य पाकिस्तानी हुकूमत मनोनीत करती है।

शेष आठ में से एक पाक अधिकृत कश्मीर के प्रधानमंत्री और सात निर्वाचित असेंबली के मेंबर होते हैं। यानी वे एक तरह से पाकिस्तान सरकार के रबर स्टांप ही हैं। बात यहीं समाप्त नहीं होती। सच तो यह है कि कश्मीर काउंसिल भी दिखावा ही है। इसके ऊपर पाकिस्तान की फौज है, जिसका पूरे इलाके की कानून और व्यवस्था पर नियंत्रण है। उसके इशारे के बगैर वहां पत्ता भी नहीं खड़कता।

इस तरह वहां की सरकारों का अस्तित्व इतना ही है कि उसके चुने हुए प्रतिनिधि गाड़ी-घोड़े का सुख लेते रहें और जब भी, जहां भी हुकूमत कहे, अपने दस्तखत कर दें।

ऐसे घनघोर अलोकतांत्रिक प्रशासन तंत्र के बाद भी इमरान खान आम आदमी से वादा करते हैं कि वहां दो बार जनमत संग्रह कराया जाएगा। तो क्या इसका अर्थ यह है कि जनमत संग्रह वाकई होगा? कभी नहीं। इसका मकसद सिर्फ अंतरराष्ट्रीय बिरादरी और अवाम को बुद्धू बनाना तथा अपने दल का वजूद कायम करना है।

यह तो इमरान भी जानते हैं कि जनमत संग्रह हुआ तो लोग भारत में विलय के हक में राय प्रकट करेंगे। गुजिश्ता सत्तर-बहत्तर बरस में पाकिस्तान ने इस खूबसूरत वादी में समस्याओं के ढेर सारे पहाड़ उगा दिए हैं। विकास के नाम पर आज भी कबीला-संस्कृति चल रही है।

गैस और बिजली के मुद्दे पर वहां चुनाव प्रचार होता है। शिक्षा, सेहत, रोजगार, खेती, सिंचाई, पेयजल और औद्योगिक पिछड़ापन जैसे मसले लोगों को सालते हैं। वे भारत जैसे विकास की बात नहीं करते। वे तो अपने नेताओं से कहते हैं कि इस घाटी को लाहौर या इस्लामाबाद जैसा ही बना दो। जिस मानव अधिकार की बात पाकिस्तान भारतीय कश्मीर के बारे में करता है, वह अपने कब्जे वाले कश्मीर की दुर्दशा ही देख ले।

हिंदुस्तान में अभी भी कश्मीरियत की खुशबू आती है। वहां अन्य राज्यों का दखल न के बराबर है। मगर पाक अधिकृत कश्मीर में तो कश्मीरी कल्चर बचा ही नहीं। वे कुछ-कुछ पंजाबी, कुछ सिंधी, कुछ पठानी और बहुत सारी चीनी संस्कृति के आक्रमण का मुकाबला कर रहे हैं। इमरान खान किस दम पर जनमत की बात करते हैं?

राजेश बादल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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