आखिर क्यों सिमटते जा रहे हैं सत्र?

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2003 के बाद मध्यप्रेश विधानसभा में सत्र की अवधि लगातार कम होती जा रही है। भाजपा शासनकाल में जो परंपरा डाली गई थी उसी को कांग्रेस सरकार भी आगे बढ़ा रही है और बजट सत्र में मात्र 15 बैठकें होंगी जो अब तक सबसे सीमित अवधि वासा बजट सत्र होगा। दरअसल देश में लोकसभा और प्रदेश में विधानसभा एक ऐसे प्लेटफॉम होता है जहां जनता के चुने हुए जनप्रतिनिधि अपनी बात मजबूती से रख सकते हैं। लोकसभा और विधानसभा की धमक भी ऐसी रही हैं जिसमें सक्रिय जनप्रतिनिधियों की साख सदन के बाहर भी बनती रही है। अनेक समस्याओं के हल सदन के अंदर तुरंत हो जाया करते थे।

भ्रष्टाचारियों पर कार्रवाई निश्चित अवधि में होती थी लेकिन धीरे-धीरे सदन की सत्र की अवधि कम होती गई और जरूरी विषयों पर चर्चा के लिए समय ही नहीं रहा। परिणाम स्वरूप इन सदनों की ना केवल धमक कम हुई वरन प्रतिनिधियों को भी अपने दक्षता साबित करने का अवसर कम होता गया। बहरहाल मध्यप्रदेश की 15वीं विधानसभा का तृतीय सत्र 8 जुलाई से 26 जुलाई तक होने जा रहा है जिसमें 15 बैठकें प्रस्तावित हैं जो माना जा रहा है सबसे कम अवधि का बजट सत्र है। वैसे तो 2003 के बाद लगातार विधानसभा में सत्रों की अवधि घटती जा रही है। पिछले 15 वर्षों में भाजपा शासनकाल में जो परंपरा विधानसभा सत्र को कम अवधि की चलाने की शुरू हुई थी।

लगता है कांग्रेसी सरकार भी उसी परंपरा को आगे बढ़ा रही है। पहले 2001 और 2002 में सत्रों की अवधि लगभग 40 या 45 दिन हुआ करती थी और तब 125 से लेकर 140 घंटे तक सदन में काम होता था लेकिन धीरे-धीरे यह अवधि कम होती गई और इस बार केवल 75 घंटे सदन में काम होगा। जिनमें लगभग 25 घंटे ध्यानाकर्षण, शून्यकाल और स्थगन सूचनाओं में चला जाएगा। विभागों पर चर्चा के लिए लगभग 50 घंटे ही मिल पाएंगे। यही कारण है नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव सदन की अवधि बढ़ाने के लिए राज्यपाल को पत्र लिखने जा रहे हैं। भार्गव का कहना है कि बजट की अवधि पर्याप्त नहीं है जबकि विधानसभा सचिव एपी सिंह का कहना है किसरकार बजट के हिसाब से अवधि तय करती है और अधिक समय कम पड़ता है तो भोजन अवकाश समाप्त कर दिया जाता है या फिर शाम को सदन की अवधि बढ़ा दी जाती है।

कुल मिलाकर सरकार भले ही सदन की अवधि कम करके अपने लिए सुविधाजनक स्थिति समझती हो। लेकिन विधायकों के लिए सदन की कम अवधि ठीक नहीं रहती ना तो जनसमस्याओं को सदन के अंदर उठा पाते हैं और ना ही क्षेत्र के विकास के लिए मांग रख पाते हैं और विभागों पर भी पर्याप्त चर्चा ना होने के कारण संतुलन डगमगा जाता है। सीमित अवधि में भी क ई बार सदन हंगामे की भेंट चढ़ जाता है और कार्यवाही नहीं हो पाती। इस समय जबकि प्रदेश में भीषण पानी की समस्या है, बिजली कटौती हो रही है और स्थानांतरण के मुद्दे को विपक्ष सदन के बाहर उठा रहा है। अब सदन के अंदर इन मुद्दों चर्चा के लिए यदि पर्याप्त समय नहीं मिला तो फिर हंगामा भी हो सकता है।

देवदत्त दुबे
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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