अराजकता की आग

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सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को संशोधित नागरिक कानून की संवैधानिक वैद्यता का परीक्षण करने का निश्चय किया, लेकिन उसने इस कानून के क्रियान्वयन पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। इस नए कानून में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आए गैर मुस्लिम शरणार्थियों को भारत की नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान है। अब अगली सुनवाई 22 जनवरी को होगी। कोर्ट के इस रूख के बाद इस बात की तो प्रतीक्षा की ही जानी चाहिए कि उसकी तरफ से या फैसला आता है। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि यह संशोधन संविधान के विपरीत है। सरकार का कहना है कि सब कुछ संविधान के दायरे में रखकर किया गया है। पहले भी एक निश्चित दायरेमें संशोधन हुए हैं। कोर्ट को इन तर्कों को संविधान की कसौटी पर परखना है। आखिरकार व्याया की जिम्मेदारी कोर्ट की ही होती है। कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं को भरोसा भी दिया है। बावजूद इसके गुरुवार को जिस तरह देश भर में नागरिकता संशोधन कानून को लेकर प्रदर्शन कहीं-कहीं अराजक हुए हैं, उससे यह सवाल उठना लाजिमी है।

कि कहीं किसी दबाव की सियासत के तहत एक अपने ढंग का विमर्श तो खड़ा करने की कोशिश हो रही है। जिस तरह मुम्बई, बेंगलुरू, दिल्ली, कोलकाता और यूपी में मुरादाबाद, संभल, लखनऊ तथा बनारस प्रदर्शन का गवाह बना, उससे यह समझ में आना बेमानी नहीं है कि एक धारणा बनाने की कोशिश हो रही है। जहां तक प्रदर्शन की बात है तो वो लोकतंत्र का हिस्सा है। असहमति के नाम पर सरकारी संपत्तियों को नुकसान पहुंचाया जाना कहां तक जायज है? ऐसी आगजनी करने वाले यह भूल जाते हैं कि आखिर वे अपनी साझा संपत्ति ही फूंक रहे होते हैं। इसकी भरपाई सरकारें टैस बढ़ाकर कर लेती है। इसलिए यह सोच ब्रिटिश काल में भले ही प्रासंगिक रही हो लेकिन अपने देश में एक तरह से खुद के पैर पर कुल्हाड़ी चलाने जैसा है। दुखद है, संभल में परिवहन निगम की बस को आग लगा दी गई। लखनऊ में खदरा पुलिस चौकी में भी विरोध के नाम पर इसी तरह की आगजनी हुई, स्थिति बेकाबू-सी हो गई है। कई जगह गाडिय़ां फूंकी गई हैं। पत्रकारों को भी नहीं बख्शा गया है।

शासन-प्रशासन के सामने बड़ी चुनौती है। सरकार को इससे कड़ाई से निपटना होगा। यह विरोध, उपद्रव में बदलता जा रहा है। जाहिर है, अराजक तत्व असंतोष की आग में अपने मंसूबों को अंजाम दे रहे हैं। नागरिकता संशोधन कानून से भले ही देश के अल्पसंख्यकों को कोई लेना-देना ना हो लेकिन एक सुनियोजित किया गया है कि लोग बेदखल हो जाऐंगे। शायद इसी सुनियोजित रणनीति का परिणाम है, जो जगह-जगह दिख रहा है। भले ही कुछ लोगों की मंशा कामयाब हो जाए लेकिन आम आदमी के लिए अशांति के दौर में अपनी जरूरतों को पूरा कर पाना कितना कष्टप्रद हो जाता है, जब कर्फ्यू के हालात पैदा हो जाते हैं। इसलिए खास तौर पहले से अधिक सकर्तता की जरूरत है। जहां तक पार्टियों की बात है तो कांग्रेस की भूमिका को लेकर जरूर सवाल है। सिटिजन के लिए नेशनल रजिस्टर की व्यवस्था 2004 में तत्कालीन मनमोहन सरकार ने की थी। यह बात और की उस पर काम नहीं हो सका। दूसरी बात नागरिकता कानून में कांग्रेस ने पहले कई बार संशोधन किये हैं। अब वही पार्टी सीएए को देश-विरोधी बता रही है।

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