यह बात हम सबको बड़ी अच्छी लगती है कि हम सब आजाद हो गये। यह बात सिर्फ परिपूर्ण समाज तक के लिये बहुत अच्छी है। परंतु उस गरीब जनता का क्या होगा जो सात दशकों बाद भी आज भी उसी दोराहे पर खड़ी है जहां वह पहले थी। देश में नई सरकारें आईं। नई-नई तकनीक के साधन आये और न जाने हमारे देश ने सात दशकों में इतनी तरक्की कर ली कि हम आज इक्कीसवी सदी की ओर अग्रसर हैं। यह वास्तव में हम सबके लिये बहुत अच्छी बात है। परंतु यह एक सोचनीय प्रश्न है कि जो गरीब सात दशकों पहला था वह आज भी वहीं का वहीं खड़ा और जो इस श्रेणी से बाहर था वह और अधिक संपन्न हो गया। कहीं न कहीं तो देश में खोट हो सकता है। क्योंकि इन सात दशकों में अमीर और अधिक बनते चले गये और जो गरीब तबका था वह और अधिक गरीब हो गया। वैसे तो हम यह कहते नहीं थकते कि देश से गरीबी कुछ हद तक हटी है। यह हटी तो जरूर परंतु धरातल पर नहीं। क्योंकि वास्तव में यदि इस ओर हमारी सरकारे ध्यान देती तो आज आप सब देख ही रहे हैं कि हमारी न्यायपालिका को खतरा है खतरा भी ऐसा कि इसमें सुधार की कोई गुंजाइश नहीं है। सरकारों ने तरह-तरह पंचवर्षीय योजनाएं चलाई और आज भी चल रही हैं। इन योजनाओं को लाभ उस व्यक्ति को आज भी नहीं मिला जो अंतिम पंक्ति में खड़ा है। ऐसी योजनाओं से देश का विकास तो हुआ परंतु अमीरी और गरीबी में ऐसे फांसला हो गया जिसे पाट पाना बहुत मुश्किल है। इन सत्तर सालों में विकास के उन तौर तरीकों को अपनाया है, जिससे समाज में विषमता बढ़ गई है। अमीरी और गरीबी की खाई और अधिक चौड़ी हुई है।
देश में विकास का लाभ अमीरों को तो खूब मिला है, लेकिन गरीबों की हालत आज भी कमोबेश जस की तस है। वर्तमान आर्थिक नीतियों और उदारीकरण के कारण देश के 17 फीसदी लोग करोड़ों-करोड़ों रुपये और अपार संपत्ति के मालिक बन गए हैं। अमीर भी ऐसे बने कि वे आज अपने हिंदुस्तानी कहवाने को गर्व महसूस नहीं करते। वे अपने को किसी अंगे्रजियत से कम नहीं समझते। क्योंकि उनका विकास हुआ और उनकी पीढिय़ों का विकास हुआ। परंतु ऐसे गरीब का विकास नहीं हो सकता जिसका होना चाहिए था। हमारे देश में ऐसी जनता आज भी 83 फीसदी गरीबी में जीवन बसर कर रही है। उसे न तो भरपेट भोजन मिल रहा है और न न्यूनतम मजदूरी। किसान को उसकी फसल की कीमत नहीं मिलती जितना उसकी लागत लग जाती है। यूएनडीपी की रिपोर्ट के अनुसार भारत मानव विकास सूचकाक के 134वें नंबर पर पिछले दो साल से ठहरा हुआ है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में भारत के राज्यों की तुलना दुनिया के घोर गरीब और तेजी से विकसित हो रहे देशों से की गई है। उत्तर प्रदेश, बिहार और उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, केरल की स्थिति घाना तथा मालावी से भी खराब है, जबकि भारत के ही अन्य राच्य पंजाब ने तरक्की में ब्राजील और मैक्सिको को पछाड़ दिया है। स्वास्थ्य, शिक्षा और पेयजल के मोर्चे पर देश की दशा आज भी दयनीय है।
एक रिपोर्ट के अनुसार देश के 110 करोड़ लोगों में से 62 करोड़ ऐसे राज्यों में रहते हैं, जो विकास में सबसे नीचे हैं। इन पिछड़े राज्यों में उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में देश की एक तिहाई आबादी रहती है। तेज और पिछड़े राज्यों में अंतर शासन की गुणवत्ता का भी है। दिल को झकझोरने वाला बात है कि विकास की होड़ में आगे दर्शाए जाने वाले गुजरात, कर्नाटक व महाराष्टï्र के कुछ जिलो में बाल मृत्युदर सर्वाधिक पिछड़े घोषित राज्यों बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, पश्चिमी बंगाल ज्यादा है। मतलब, विकास के लाभ का फल एक ही राज्य की जनता को भी बराबर नहीं मिल रहा। ग्रामीण और शहरी इलाकों में स्पष्ट भेद है। कुल मिलाकर तेज आर्थिक विकास दर अपने आप में जन-समृद्धि का पर्याय नहीं होती।
समस्या दरअसल उच्च विकास दर अर्जित करने की उतनी नहीं, जितनी कि उच्च विकास दर को बनाए रखने और मिलने वाले लाभ के न्यायसंगत बंटवारे की है। समृद्धि के कुछ द्वीपों का निर्माण हो भी गया तो कोई देश उनके बूते दीर्घकालीन तरक्की नहीं कर सकेगा। उसके लिए संसाधनों और पूंजीगत लाभ के तार्किक वितरण पर ध्यान दिया जाना जरूरी है। यदि समय रहते समुचित कदम नहीं उठाए गए तो विषमता की यह खाई और चौड़े हो सकती है और उससे राजनैतिक व सामाजिक टकराव की नौबत आ सकती है। आबादी तेजी से बढ़ रही है। महंगाई भी तेजी से बढ़ी है। इन दोनों कारणों से गरीबी भी बढ़ रही है। आज भी देश की आधी से अधिक आबादी को भोजन-वस्त्र के अलावा पानी, बिजली, चिकित्सा सेवा और आवास की न्यूनतम आवश्यकताएं भी उपलब्ध नहीं है। हमारी वर्तमान विकास की नीति का लक्ष्य और दर्शन क्या है? देश की पच्चीस फीसदी आबादी शहरों में रहती है। ग्रामीण क्षेत्रों का भी संपन्न वर्ग शहरी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है।
सारी राजनीति, सारी शिक्षा, सारे विशेषाधिकार शहरी आबादी के एक खास तबके तक सीमित हैं। इनमें पूंजीपतियों, व्यापारियों, ठेकेदारों, कारपोरेट प्रबंधकों, सरकारी नौकरशाहों, नेताओं आदि उच्च स्तर के लोगों को गिना जाता है। गैर कानूनी आय और काले धन की समानांतर अर्थव्यवस्था से जुड़ी आबादी भी इनमें शामिल है। चार साल पहले भारत में नौ खरबपति थे। अब 56 हैं। 12 साल पहले भारत के सकल घरेलू उत्पाद में खरबपतियों का हिस्सा दो फीसदी था। अब बढ़कर अधिक फीसदी हो गया है। खेती पर निर्भर देश की 65 फीसदी आबादी का जीडीपी में हिस्सा घटकर 17 फीसदी हो गया। आर्थिक विकास के इस दर्शन ने धनी और गरीब, कृषि एवं उद्योग के बीच के अंतर को बढ़ाया है। इससे गावों और शहरों के बीच की भी खाई चौड़ी हुई है। जितना पैसे दस मजदूर एक महीने में कमाते हैं इतने पैसे में एक अमीर अपनी विलासिता में व्यय कर देता है।
– सुदेश वर्मा
लेखक के ये अपने निजि विचार हैं