अब पछता तो जरूर रहे होंगे बाइडेन

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जनवरी 2002 में अफगानिस्‍तान में मौजूद अमेरिकी दूतावास 1989 के बाद पहली बार खुला था। तब के राजदूत रायन क्रॉकर ने कहा था कि काबुल में उनसे मिलने कांग्रेस का जो पहला सदस्‍य पहुंचा, वह तब डेलावेयर के सीनेटर रहे जो बाइडन थे। क्रॉकर को बाइडन से बड़ी उम्‍मीदें थीं, मगर अफगानिस्‍तान में अब जो कुछ भी हो रहा है, उससे बाइडन को लेकर उनकी राय बदल गई है। वे अकेले नहीं हैं। डोनाल्‍ड ट्रंप के बाद जनवरी 2021 में राष्‍ट्रपति बने बाइडन ने सेना वापस बुलाने में जो जल्‍दबाजी दिखाई है, आज उसपर जरूर उन्‍हें पछतावा हो रहा होगा। बिना किसी संघर्ष के 13 अमेरिकी सैनिक मारे गए हैं। अमेरिकी सोशल मीडिया में बाइडन किसी विलन की तरह उभर रहे हैं, जबकि इस फैसले से वे राजनीतिक नायक बनना चाहते थे।

जहां से चले थे, फिर वहीं पहुंचे
समय का पहिया फिर उसी जगह पर पहुंच गया लगता है। 2001 में अमेरिका इसलिए अफगानिस्‍तान गया था ताकि आतंकवादियों का सफाया कर सके। 20 साल बाद अमेरिका वहां से बोरिया-बिस्‍तर बांधकर निकल रहा है तो आतंकियों की पकड़ और मजबूत हो चुकी है। अमेरिकी सैनिकों की एक पूरी पीढ़ी अफगानिस्‍तान में खप गई। एक ट्रिलियन डॉलर से ज्‍यादा खर्च हो गए और अब जैसी तस्‍वीरें आ रही हैं, वो बाइडन प्रशासन के लिए शर्मिंदगी भरी हैं।

अपने घर में घिर गए हैं बाइडन
बाइडन जब राष्‍ट्रपति की कुर्सी पर बैठे तो अमेरिकी मीडिया का एक बड़ा धड़ा उनके पीछे था। काबुल एयरपोर्ट पर हमले के दिन को अमेरिकी मीडिया ने ‘बाइडन के राष्‍ट्रपति शासन का सबसे बुरा दिन’ करार दिया है। ‘वॉल स्‍ट्रीट जर्नल’ में छपा एक ऑप-एड कहता है कि बाइडन की विदेश नीति को रीप्‍लेस करने की जरूरत है। ‘द हिल’ पूछता है कि अफगानिस्‍तान डिजास्‍टर के बाद सवाल उठते हैं कि बाइडन की ‘रेड लाइन’ कहां है? बाइडन कह चुके हैं कि उन्हें अपने फैसले पर पछतावा नहीं है, मगर शायद मन ही मन वे सोच जरूर रहे होंगे कि कहीं उनका यह जुआ भारी न पड़ जाए।

काबुल हमले के बाद बाइडन ने वादा किया कि अमेरिका आतंकियों पर पलटवार जरूर करेगा। मगर बाइडन की बातों और एक सुपरपावर के कदम पीछे हटाने के बीच जो खाई है, उसे पाटने में वाइट हाउस भी नाकाम हो रहा है। बाइडन का यह फैसला पूर्व राष्‍ट्रपति जिम्‍मी कार्टर की याद दिलाता है। कार्टर के 1980 ईरान बंधक बचाव अभियान को
उनके प्रशासन के ताबूत में आखिरी कील समझा जाता है। जहां कार्टर के साथ ईरान वाला किस्‍सा चुनाव से ठीक पहले हुआ था, बाइडन को राष्‍ट्रपति बने अभी 7 महीने ही हुए हैं।

कार्टर को हराने वाले रोनाल्‍ड रीगन भी एक बेरूत में अमेरिकी मरीन्‍स पर हुए एक आत्‍मघाती हमले से राजनीतिक रूप से उबरने में सफल रहे थे। लेकिन तब के अमेरिका और अब के अमेरिका में काफी अंतर है। डोनाल्‍ड ट्रंप जिन्‍होंने 2020 दोहा शांति समझौते के तहत तालिबान के साथ डील की, वही बाइडन को ‘असफल’ करार दे रहे हैं। गुरुवार को जब बाइडन मीडिया के सामने थे, तो इस तथ्‍य से किनारा कर पाना मुश्किल था कि इसे पूरे घटनाक्रम के जिम्‍मेदार वही हैं।

बाइडन शायद यह समझ नहीं सके या उनके सलाहकार इस बात को भांप नहीं सके कि अफगानिस्‍तान और इराक में बड़ा अंतर है। विदेश नीति के कई जानकारों ने लिखा है कि मुद्दा अमेरिका के अफगानिस्‍तान में रहने या न रहने का नहीं, बल्कि जिस तरह से विदाई हुई, उसका है। बहुत से लोगों को साइगोन (1975) की याद आ गई। अधिकतर विशेषज्ञों की राय यही है कि अमेरिका इस पूरे प्रकरण को कहीं बेहतर ढंग से हैंडल कर सकता था और बाइडन कोई नौसिखिए नहीं।

तालिबान काबुल एयरपोर्ट पर आत्मघाती हमले की निंदा कर रहा है। क्या तालिबान का यह बयान वाकई अमेरिका को मिले इन ताजे घावों पर मरहम लगा पाएगा। बाइडन को अब तक तो यह हकीकत बिल्कुल साफ ही नजर आ रही होगी कि पाक की खुफिया एजेंसी आईएसआई हो, ISIS हो, अलकायदा हो, या फिर तालिबान, सभी की जड़ें एक ही जगह मौजूद हैं। ऐसे में बाइडन अगर हमलावरों को चुन-चुन कर मारने की बात कर रहे हैं, तो फिर वह निशाना किसे बनाएंगे?

अमेरिकी फौज अगले हफ्ते की शुरुआत तक अफगानिस्‍तान से बाहर जा चुकी होगी। आगे जो भी हो, इतना तय है कि बाइडन के विरोधी उन्‍हें अपने वक्‍त का कार्टर साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। अमेरिका और दुनिया यह भयावह दौर अपनी आखों से देख रही है, उन्‍हें मनाना इतना मुश्किल भी नहीं होगा। बाइडन भले ही यह दावा करें कि आतंक के खिलाफ अमेरिका की वैश्विक लड़ाई खत्‍म हो चुकी है, मगर इस हफ्ते का घटनाक्रम दिखाता है कि ऐसा नहीं है। बाइडन की स्‍क्रूटनी अब और सख्‍ती से होगी।

वैसे अब ये तो तय हो गया है कि अमेरिका को ये घाव आईएसआईएस के ने दिया है। आतंकवादी संगठन इस्लामिक स्टेट की शाखा खुरासन आईएसआईएस दुनिया के सबसे घातक आतंकवादी खतरों में से एक के रूप में विकसित हो रहा है। गुरुवार को काबुल हवाई अड्डे के बाहर हुए आत्मघाती हमलों के लिए अमेरिका इसी संगठन को जिम्मेदार ठहरा रहा है। उसने खुद भी कबूल लिया है। करीब 20 सालों तक अफगानिस्तान में अमेरिका के नेतृत्व में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई चलती रही। इसके बावजूद इस्लामिक स्टेट-खुरासान अपना अस्तित्व बचाने में न सिर्फ कामयाब हुआ बल्कि अब भी खतरनाक हमले करने में सक्षम है। अमेरिकी और अन्य विदेशी सैनिकों के अफगानिस्तान से वापस जाने और तालिबान के सत्ता में वापस आने के बाद इस संगठन को फलने-फूलने के लिए उचित माहौल मिल सकता है। हालांकि दोनों संगठन एक- दूसरे के कट्टर दुश्मन हैं। दरअसल आईएसआईएस-के मध्य एशिया में इस्लामिक स्टेट का सहयोगी है।

2014 में इस्लामिक स्टेट के लड़ाके पूरे सीरिया और इराक में फैल गए जिसके कुछ महीने बाद 2015 में आईएसआईएस-के की स्थापना हुई। इस संगठन में खुरासान दरअसल अफगानिस्तान का एक प्रांत है जो अफगानिस्तान, ईरान और मध्य एशिया के ज्यादातर हिस्से कवर करता है। आतंकवादी संगठन की शुरुआत कई सौ पाकिस्तानी तालिबान लड़ाकों के साथ हुई थी। लगातार चलाए गए सैन्य अभियानों के बाद उन्हें पाकिस्तान से निकाल दिया गया और उन्होंने अफगानिस्तान सीमा पर शरण ले ली।

संगठन की ताकत चरमपंथी विचारधारा वाले लोगों ने बढ़ाई। इसमें तालिबान के वे असंतुष्ट लड़ाके भी शामिल हो गए जो पश्चिम के खिलाफ तालिबान के उदार और शांतिपूर्ण रवैये से नाखुश थे। बीते कुछ सालों में जैसे-जैसे तालिबान ने पश्चिम के साथ बातचीत के रास्ते खोले असंतुष्ट लड़ाके खुरासान समूह में शामिल हो गए और इसके लड़ाकों की संया बढ़ती गई। इसके अलावा ईरान के एकमात्र सुन्नी प्रांत से, उज्बेकिस्तान के इस्लामी आंदोलन से, तुर्किस्तान इस्लामिक पार्टी से, जिसमें चीन के उत्तर-पूर्व के उइगर शामिल हैं, को भी आकर्षित किया।

जब तालिबान ने अपने संघर्ष को अफगानिस्तान तक सीमित कर दिया तो दुनियाभर में गैर-मुस्लिमों के खिलाफ जिहाद को फैलाने और इस्लामिक स्टेट के प्रभाव को विस्तृत रूप देने की जिम्मेदारी आईएसआईएस-के ने उठाई। यह संगठन कितना खतरनाक है इसका अंदाजा एक रिपोर्ट से लगाया जा सकता है, जिसमें बताया गया है कि जब अफगानिस्तान अमेरिका के सैनिक तैनात थे, विमान और सशस्त्र ड्रोन मौजूद थे और सेना किसी भी ऑपरेशन को अंजाम देने के लिए तैयार थी, तब भी इस्लामिक स्टेट अपने हमले जारी रखने में सक्षम था। सैनिकों की वापसी के बाद अफगानिस्तान में अमेरिका जमीनी हमले की क्षमता खत्म हो जाएगी।

साथ ही उसका इंटेलिजेंस भी कमजोर हो जाएगा जिससे इस्लामिक स्टेट की क्षमता और हमले की योजना के बारे में पता लगाया जा सकता था। बाइडन के अधिकारियों का कहना है कि इस्लामिक स्टेट समूह उन कई आतंकी खतरों में से एक है, जिनसे वह विश्व स्तर पर निपट रहा है। अमेरिका को डर सता रहा है कि 20 सालों बाद तालिबान की वापसी अफगानिस्तान को ऐसे चरमपंथी संगठनों का घर बना सकती है जो पश्चिम पर हमले कर सकते हैं। अमेरिका को अपने सबसे बड़े दुश्मन अल-कायदा के भी वापस सिर उठाने का डर सता रहा है।

दीपक वर्मा
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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