अपने पत्रकारिता के अनुभव में मैंने एक बहुत अच्छी चीज पाई। माना जाता है कि पत्रकारो व सरकारी अफसर कर्मचारियों को किसी पार्टी विशेष के प्रति दोष या लगाव रखने से ऊपर उठकर होना चाहिए। मगर मेरा मानना है कि ऐसा हो नहीं पाता है। अक्सर कोई पार्टी कवर करते-करते कुछ पत्रकार उसके नेताओं व नीतियों के इतने करीब हो जाते हैं कि उनका व्यवहार उसकी कार्यकर्ताओं की तरह से हो जाता है।
जब मैं कांग्रेस करता था तो एक बार एक बड़े अंग्रेजी अखबार के वरिष्ठ पत्रकार ने कांग्रेस कवर करना शुरू किया। वे अक्सर तत्कालीन कांग्रेसी प्रवक्ता अजीत जोगी से भिड़ जाते थे। एक बार किसी नेता के कांग्रेस में शामिल होने के सिलसिले में आयोजित प्रेस कांफ्रेंस में वे तो मानो अजीत जोगी पर चढ़ ही गए। उन्होंने उन्हें हड़काते हुए पूछा कि आखिर आपने इस व्यक्ति को पार्टी में शामिल क्यों किया? इस पर जोगी भी नाराज हो गए और उन्होंने तमतमाते हुए उन्हें जवाब दिया कि आप पत्रकार है पत्रकार ही रहिए। आप अखबार में खबरें लिखिए और हमें अपनी राजनीति करने दें। हम किसे पार्टी में ले और क्या दें यह हमारी बुद्धि पर ही छोड़ दीजिए। आप हमें यह न बताए कि हमें क्या करना चाहिए।
अब यही राजनीति में होने लगा है। सरकारी नौकरी करते-करते कुछ आला अफसर सत्तारूढ़ दल के बेहद करीब आ जाते हैं। कुछ समय बाद उसके टिकट पर चुनाव भी लड़ते हैं। कोई भी राजनीतिक दल चाहे वह राज्य में हो या केंद्र में इस रोग से अछूता नहीं है। सभी दल इससे ग्रसित है। पहले भाजपा इससे बची हुई थी क्योकि उसने ज्यादा राज ही नहीं किया था। फिर उसने इस भ्रम को तोड़ दिया। हाल में जब पश्चिम बंगाल के तीन आला अफसरो के केंद्र द्वारा वापस बुला लेने की खबर पढ़ी तो मामला ताजा हो गया।
हुआ यह कि प्रचार के सिलसिले में दिल्ली से पश्चिम बंगाल गए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के कार काफिले पर हुआ तो हमले के बाद केंद्र सरकार ने इस घटना के लिए सुरक्षा के प्रभारी तीन आईपीएस अफसरो को वापस अपने पास बुला लिया। इससे दोनों तरफ टकराव बढ़ गया। यह तीनो आईपीएस अधिकारी प्रतिनियुक्ति पर राज्य सरकार के साथ थे। मगर ममता सरकार ने केंद्र की मांग को ठुकराते हुए दो टूक शब्दो में कह दिया कि वह ऐसा कर पाने में असमर्थ है क्योंकि उसके पास पहले से ही अच्छे आईपीएस अफसरो की कमी है।
इस घटना ने अफसरो के तबादले के मुद्दे पर केंद्र और राज्य सरकार के बीच होते आए टकराव की घटना को ताजा कर दिया। ऐसा पहले भी होता रहा है। इसमें दिवंगत नेता जयललिता का केंद्र से हुआ टकराव बहुत चर्चित रहा था। मई 2001 में मुख्यमंत्री बनने के बाद तमिलनाडु पुलिस की सीआईडी ने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री एम करूणानिधि व उनके साथियो तथा तत्कालीन वाजपेयी सरकार में मंत्री मुरोसाली मारन व टीआर बालू को गिरफ्तार कर लिया था। इसका इलेक्ट्रानिक चैनलो पर काफी प्रचार प्रसार भी हुआ। मुख्यमंत्री का तो कुछ नहीं हुआ पर वहां की राज्यपाल फातिमा बीवी की गिरफ्तारी संबंधी रिपोर्ट से नाराजगी जताते हुए केंद्र सरकार ने उन्हें उनके पद से हटा दिया।
तत्कालीन कानून मंत्री ने उन्हें हटाए जाने की वजह बताते हुए कहा कि उनकी रिपोर्ट तमिलनाडु के वास्तविक हालातो की परिलक्षित नहीं करती हैं व राज्यपाल अपनी संवैधानिक जिम्मेदारी व परंपरा का निर्वाह करने में पूरी तरह से नाकाम रही है। तब चेन्नई के पुलिस आयुक्त के. मुथुकरुप्पन, संयुक्त पुलिस आयुक्त सेबेस्टियन जॉर्ज व उप पुलिस आयुक्त क्रिस्टोफर नेल्सन को इन गिरफ्तारी के लिए जिम्मेदार ठहराते हुए वापस बुला लिया गया था। ये तीनो ही अधिकारी तत्कालीन मुख्यमंत्री जे जयललिता के करीब माने जाते थे।
अब केंद्र सरकार ने जिन अफसरो को वापस बुलाया है वे हैं अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक राजीव मिश्रा, उप पुलिस महानिदेशक प्रवीण त्रिपाठी व डायमंड हार्बर के पुलिस अधीक्षक भोलानाथ पांडे। इस मामले में ममता बनर्जी ने केंद्र को ठेंगा दिखा दिया है। जयललिता वाले मामले में गजब का हंगामा हुआ था। तत्कालीन गृहमंत्री व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने तब अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा बुलाई गई कैबिनेट की बैठक में इन तीन अफसरों को तमिलनाडु से वापस बुलाने का फैसला करवाया था।
केंद्र इस मामले से कितना नाराज था इसकी अहमियत इस बात से ही लग जाती है कि तब लंदन गए तत्कालीन अटार्नी जनरल सोली सोराबजी से अपनी यात्रा बीच में ही छोड़कर दिल्ली आने को कहा गया था। वह भी बैठक में मौजूद रहे थे। तब विवाद इतना ज्यादा बढ़ा कि जयललिता ने राज्य के हितो के संरक्षण की बात करते हुए तमाम मुख्यमंत्रियो को पत्र लिखकर अपने लिए समर्थन मांगा था। उनका कहना था कि केंद्र सरकार का यह कदम राज्य व केंद्र के संबंधो को प्रभावित कर सकता है।
यहां यह याद दिलाना जरूरी हो जाता है कि देश की जानी-मानी अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवा आईएएस आईपीएस व इंडियन फारेस्ट सर्विस के अधिकारियो का जब चयन होता है तो केंद्र सरकार उनका राज्य कॉडर आवंटित करती हैं। ये अधिकतर समय पर राज्य व केंद्र सरकार में काम करते हैं व केंद्र सरकार उन्हें प्रतिनिुयक्ति पर राज्यो को भेजती है। आईपीएस अधिकारियों के संबंधी फैसले गृह मंत्रालय लेता है जबकि आईएएस अफसरो के फैसले कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय व आईएफएस अफसरो के तबादले व नियुक्ति पर्यावरण व वन मंत्रालय करता है।
केंद्र सरकार राज्य में तैनात किसी अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर सकती है। उसके खिलाफ जांच करवाना व सजा तय करने का फैसला करना राज्य सरकार के अधीन होता है। जब सरकार को किसी आईएएस, अपीपीएस या आईएफएस अफसर के खिलाफ कार्रवाई करनी होती है तो उस हालात में केंद्र व राज्य दोनों सरकारो का उस पर आम सहमति जताना जरूरी हो जाता है। जोकि किसी भी हालात में संभव नहीं लगता है।
पिछले साल फरवरी माह में भी ऐसा ही मामला देखने को मिला था जबकि तत्कालीन पुलिस महानिदेशक समेत पांच आईपीएस अफसरो के टीएमसी द्वारा किए गए धरने में हिस्सा लेने से नाराज होकर केंद्र सरकार ने तत्कालीन मुख्यसचिव को इन सभी पांच लोगों के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा था। मगर राज्य सरकार का कहना था कि उन लोगों ने ऐसा कोई काम नहीं किया था अतः वे लोग दोषी नहीं है। तब केंद्र सरकार हाथ मसलते रह गई थी वह ममता का कुछ नहीं कर पाई थी।
विवेक सक्सेना
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)