अफगानिस्तान : हमारी उदासीनता

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अफगानिस्तान के चौथे राष्ट्रीय चुनाव के प्रारंभिक परिणाम हमारे सामने हैं। राष्ट्रपति अशरफ गनी को 50.64 प्रतिशत वोट मिले हैं और प्रधानमंत्री या मुख्य कार्यकारी डा. अब्दुल्ला अब्दुल्ला को 39.52 प्रतिशत वोट मिले हैं। तीसरे नंबर पर रहे हैं- गुलबदीन हिकमतयार, जिन्हें सिर्फ 3.8 प्रतिशत वोट मिले। बाकी 11 उम्मीदवारों को कुछ-कुछ हजार वोट मिले हैं।

ये चुनाव हुए थे, 28 सितंबर को लेकिन चुनाव परिणाम की घोषणा अब तीन माह बाद हुई है। अभी भी यह अंतिम घोषणा नहीं है। अगले तीन दिन में उम्मीदवारों की शिकायतें दर्ज होंगी। उनके फैसले के बाद पक्के परिणाम की घोषणा होगी। पक्का परिणाम जो भी घोषित किया जाए, यह बात पक्की है कि यह चुनाव पिछले चुनाव के मुकाबले ज्यादा झगड़े पैदा करेगा। पिछले राष्ट्रपति के चुनाव में गनी राष्ट्रपति चुने गए तो दूसरे उम्मीदवार अब्दुल्ला को चुप करने के लिए उन्हें मुख्य कार्यकारी (प्रधानमंत्री-जैसा) बना दिया गया लेकिन गनी और अब्दुल्ला के बीच सदा तनाव बना रहा।

इस बार कुल 27 लाख मतदाताओं में से सिर्फ 18 लाख को वोट डालने दिया गया, जबकि अफगानिस्तान में कुल वैध वोटरों की संख्या 96 लाख है। याने इलाके चुन-चुनकर उनके वोटरों को अवैध घोषित किया गया। गनी पठान हैं और अब्दुल्ला पठान और ताजिक माता-पिता की संतान हैं। दोनों ही मेरे मित्र हैं। अफगानिस्तान में भी जातीय आधार पर वोट बंट जाते हैं। पठान, ताजिक, हजारा, उजबेक आदि वहां मुख्य जातियां हैं।

अफगानिस्तान में तालिबान और इन नेताओं के बीच समझौता करवाने के लिए अमेरिका के प्रतिनिधि जलमई खलीलजाद लगे हुए हैं लेकिन गनी और अब्दुल्ला के इस झगड़े के कारण उनकी मुसीबतें पहले से भी ज्यादा बढ़ जाएंगी। यह स्थिति अमेरिका और पाकिस्तान दोनों को निराश करेगी क्योंकि अमेरिका अपने फौजियों पर वहां करोड़ों रु. रोज़ बहा रहा है और पाकिस्तान पर तो अफगान-संकट का सीधा प्रभाव हो रहा है।

आश्चर्य है कि इस संकट को हल करने में भारत बिल्कुल उदासीन है। अफगानिस्तान शांत हो तो भारत को पूरे मध्य एशिया तक पहुंचना बहुत आसान हो जाएगा। गनी और अब्दुल्ला दोनों भारत के मित्र हैं। भारत की भूमिका अफगानिस्तान में सबसे अधिक रचनात्मक हो सकती है।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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