अफगानिस्तान की हकीकत स्वीकारें

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नई दिल्ली और काबुल के बीच गतिविधियां तेज हो गई हैं। तालिबान आगे बढ़ रहा है। इसका भारत पर क्या असर होगा? क्या बाइडेन द्वारा अफगानिस्तान से कदम वापस खींचने पर भारत को निराश होना चाहिए? या नए घटनाक्रम में उसके लिए अवसर छिपे हैं? क्या तालिबान से तनावपूर्ण संबंध निश्चित है? क्या यह मान कर चलें कि वे पाकिस्तान के इशारे पर चलने वाले पेशेवर इस्लामी सिपाही ही बने रहेंगे?

क्या तालिबान भारत का दुश्मन है, उससे युद्ध लड़ने जा रहा है या हमारे खिलाफ पाकिस्तान का साथ देने जा रहा है? क्या तालिबानी भारत को एक इस्लामी मुल्क में तब्दील कर पाएंगे? तालिबानी दक़ियानूसी, बर्बर, महिला विरोधी, गैरभरोसेमंद, या और बुरे हो सकते हैं, लेकिन मूर्ख या आत्मघाती नहीं हैं। वरना वे दो दशकों तक लड़कर अमेरिका को परास्त न कर पाते।

भारत के पश्चिम क्षेत्र को जो रणनीतिक नज़र पाकिस्तानी चश्मे से देखती है उसका एक उलटा पहलू है। हम इस बात से परेशान हो जाते हैं कि अमेरिका के वापस लौटने से पाकिस्तान को रणनीतिक गहराई हासिल हो गई है। इस तरह का मुगालता रावलपिंडी में जनरल हेडक्वार्टर में बैठे ‘बुद्धिमान’ ही पाल सकते हैं। इन लोगों ने ही 1986-87 के बाद से यह यह सपना देखना शुरू किया। लेकिन आज दुनिया बदल चुकी है और इसके साथ रणनीतिक तथा सामरिक तस्वीर भी बदल चुकी है। परमाणु हथियार आ चुके हैं। अगर कुछ पाकिस्तान जनरल अभी भी यह ख्वाब देख रहे हों कि वे हिंदुकुश होते हुए अफगानिस्तान पहुंच सकते हैं या वहां कोई रणनीतिक जमावड़ा कर सकते हैं, तो वे निश्चित ही बहुत भोले हैं।

बाइडेन अफगानिस्तान में जीत का खोखला दावा कर रहे हैं कि ‘हमने लक्ष्य हासिल कर लिया’। लेकिन बाइडेन ने वह अपमानजनक हकीकत कबूल ली है जिसे कबूल करने बुश तैयार नहीं हैं। वह यह कि अफगानिस्तान रॉक बैंड ईगल्स का कोई होटल कैलिफोर्निया नहीं है जहां आप मनमर्जी से जा सकते हैं और बाहर आ सकते हैं। अमेरिका एक शून्य छोड़कर गया है। तालिबान हर दिन कब्जा बढ़ा रहे हैं। देखना यह है कि पाकिस्तान का क्या होता है। अगर लड़ाई लंबी चली तो फौरन फायदे हासिल करने की उसकी उम्मीदें खत्म हो जाएंगी।

युद्ध से त्रस्त शरणार्थी, पैदल ही डूरंड रेखा पार करने लगेंगे। तालिबान अगर योद्धाओं से सौदे करके इस लड़ाई को जल्दी निबटा देते हैं तब भी वे पाकिस्तान को कितना नियंत्रण सौंपेंगे? आप कह सकते हैं कि वे चीन और पाकिस्तान के बीच की चक्की में फंस जाएंगे। लेकिन अफगानिस्तान का इतिहास ऐसा नहीं रहा है। वह इस क्षेत्र में दिलचस्पी रखने वाली ईरान और रूस जैसी ताकतों से सुलह कर सकता है।

हकीकत यह है कि भारत तालिबान से बात कर रहा है, पर इसका ढोल नहीं पीट रहा। इसकी कोई संभावना नहीं है कि ग़नी की सरकार तालिबान को युद्ध में हरा पाएगी। भारत के लिए सबसे अच्छी बात यही होगी कि बातचीत से कोई यथार्थपरक समझौता हो जाए जिससे शांति बहाल हो और सत्ता का बंटवारा हो। भारत वहां कुछ वजन तो रखता है लेकिन इतना नहीं कि वह सैन्य टकराव को प्रभावित कर सके। भूगोल और भू-राजनीति इसमें आड़े आती है। रणनीतिक रूप से यह सबसे व्यावहारिक रास्ता है। तालिबान को भारत से लड़ने की कोई जरूरत नहीं है। वे हमारे खिलाफ पाकिस्तान का युद्ध तो नहीं ही लड़ेंगे।

भारत को इस रास्ते पर चलना है तो मोदी सरकार को भी चश्मा हटाकर देखना पड़ेगा कि किसी राजनीतिक ताकत को सिर्फ इसलिए दुश्मन नहीं मान सकते कि वह इस्लामी कट्टरपंथी है। हमें मालूम है कि यह उसकी चुनावी रणनीति का केंद्रीय मुद्दा है। लेकिन भारत के इर्दगिर्द दुनिया बदल गई है। उसे भी खुद को बदलना पड़ेगा।

पाक के मामले में दबाव की गुंजाइश फिलहाल खत्म है। मोदी सरकार ने दुनिया में सुन्नी कट्टरपंथ के रक्षक सऊदी अरब की ओर भी हाथ बढ़ाया है। दुश्मन के दोस्त से दोस्ती करने के सिद्धांत का पालन करते हुए यूएई की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। लेकिन पूरी संभावना यही है कि अफगानिस्तान वैसा इस्लामी अमीरात नहीं बनेगा जैसा तालिबान चाहता है।

ऐसा हुआ भी, तो क्या भारत उसे तेल से रहित सऊदी अरब जैसा मान सकता है? एक और ऐसी ताकत, जिससे इसलिए दोस्ती की जा सकती है कि वह दुश्मन की दोस्त है? यह संभव है और विवेकपूर्ण भी। इसके लिए सिर्फ भाजपा को घरेलू राजनीति में परिवर्तन करना होगा। उसके लिए चुनौती ऐसा फॉर्मूला तैयार करने की होगी, जो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के फॉर्मूले से भिन्न हो।

शेखर गुप्ता
(लेखक एडिटर-इन-चीफ, ‘द प्रिन्ट’ हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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