अधूरे वादों को पूरा करने की बात क्यों नहीं की कोविंद ने

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नई संसद को राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने जो संबोधित किया, वह अपने आप में उत्तम श्रेणी का काम था। सबसे पहले तो मैं उनके भाषण की हिंदी की तारीफ करुंगा। ऐसा लग रहा था कि वह भाषण मूल हिंदी में लिखा गया था और राष्ट्रपति ने उसे जिस संजीदगी से पढ़ा, वह भी अच्छा प्रभाव छोड़ रही थी। उन्होंने पिछले पांच साल में की गई मोदी सरकार की कई रचनात्मक पहलों का जिक्र किया और अगले पांच साल के लिए कई मामलों में बहुत आशा बंधाई।

इसमें शक नहीं कि सरकार ने जन-सेवा के अनेक अभियान छेड़े और उनमें से कुछ थोड़े-बहुत सफल भी हुए लेकिन ऐसा तो सभी सरकारों को करना ही पड़ता है लेकिन पिछले चुनाव के दौरान जो वायदे भाजपा और मोदी ने किए थे, उनमें से ज्यादातर अधूरे रह गए। उनका जिक्र राष्ट्रपतिजी करते और उन्हें पूरा करने का भरोसा दिलाते तो और भी अच्छा होता लेकिन असलियत यह है कि यह भाषण तो मूलतः प्रधानमंत्री-कार्यालय ही तैयार करता है।

वैसे इस भाषण के दौरान सबसे ज्यादा तालियां बजीं, बालाकोट हमले और मसूद अजहर के मामलों पर ! इसका अर्थ क्या हुआ ? यही न, कि मोदी की जीत का आधार उनके रचनात्मक काम उतने नहीं हैं, जितने कि भावनात्मक काम ! मोदी सरकार को अपनी दूसरी अवधि में इस कमी के प्रति सावधान रहना होगा और अपने स्पष्ट बहुमत की खुमारी में होश नहीं खोना होगा। इस समय देश की अर्थ-व्यवस्था काफी नाजुक हालत में है। सरकारी आंकड़ें कहां तक सही हैं, कुछ कहा नहीं जा सकता। भारत के सकल उत्पाद (जीडीपी) के बारे में भी अर्थशास्त्रियों के बीच विवाद छिड़ गया है।

पिछली 20 तिमाहियों में इस बार सबसे कम जीडीपी रही है। रोजगार इस समय जितना घटा है, उतना पिछले 45 साल में नहीं घटा है। विश्व प्रसिद्ध ‘गेलप पोल’ के अनुसार दुनिया के 150 देशों में भारत का स्थान सबसे नीचे है- जनता के ‘कुशल-क्षेम’ की दृष्टि से। 2017 में भारत के सिर्फ 3 प्रतिशत लोगों ने कहा है कि वे आराम से रहते हैं जबकि 2014 में वे 14 प्रतिशत थे। चीन में आज ऐसा कहनेवाले 21 प्रतिशत हैं। मोदी सरकार ने ही नहीं, हमारी सभी सरकारों ने दो मामलों की बहुत उपेक्षा की है। एक शिक्षा और दूसरा स्वास्थ्य ! एक नागरिकों के मन और दूसरा तन को सबल बनाता है।

हमारी सरकारें तन और मन की उपेक्षा करके धन के पीछे दौड़ रही हैं। भारत शिक्षा पर 3 प्रतिशत खर्च करता है जबकि अमेरिका और यूरोपीय राष्ट्र 8 से 12 प्रतिशत तक खर्च करते हैं। हम स्वास्थ्य पर मुश्किल से 3-4 प्रतिशत खर्च करते हैं जबकि पश्चिमी देश 12 से 17 प्रतिशत तक खर्च करते हैं। भारत के लोगों का तन और मन टूटा रहेगा तो धन कहां से पैदा होगा ? कुछ पैदा भी होगा तो बस मुट्ठी भर लोगों के लिए!

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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