एक तरफ तो मायावती अखिलेश से गठबंधन तोड़ कर अगले विधानसभा उप-चुनाव अकेले लड़ने की बात कर रही हैं तो दूसरी तरफ बहनजी ने यह गुंजाइश भी छोड़ रखी है कि आगे चलकर फिर गठबंधन हो सके। बसपा-समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन टूटने के बाद यक्ष प्रश्न यही है कि अखिलेश यादव अब कौन सा रास्ता चुनेंगे। 2017 में विधान सभा चुनाव के समय कांग्रेस से और अबकी लोक सभा चुनाव के समय बसपा से गठबंधन का अनुभव अखिलेश के लिए किसी भी तरह से सुखद नहीं रहा। फिर भी अच्छी बात यह है कि गठबंधन टूटने के बाद भी अखिलेश अपनी मुंहबोली बुआ मायावती से संबंध खराब नहीं करना चाहते हैं। अगर इसी सोच के साथ अखिलेश यादव खून के रिश्ते भी निभाते तो शायद न तो पिता मुलायम और ना चाचा शिवपाल यादव उनसे दूर होते साथ ही न ही उन्हें अपनी सियासत बचाने के लिए गैरों की चौखट पर सिर रगडऩा पड़ता।
मगर दुख की बात यह है कि भले ही अखिलेश यादव अपने राजनीतिक जीवन के सबसे मुश्किल दौर से गुजर रहे हों मायावती ने उनको मंझधार में छोड़ दिया हो, लेकिन अखिलेश पारिवारिक कलह सुलझने में बिल्कुल रूचि नहीं ले रहे हैं। कम से कम पारिवारिक मामलों में तो वह (अखिलेश) कुछ ज्यादा ही अहंकारी नजर आ रहे हैं। उनके अहंकार के कारण ही समाजवादी पार्टी लगातार सियासी मैदान में दम तोड़ती जा रही है। यह स्थिति तब है जबकि अखिलेश यादव के चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी के मुखिया शिवपाल यादव का नाम न लेते हुए बसपा सुप्रीमो मायावती भी अखिलेश पर यह कहते हुए कटाक्ष कर चुकी हैं कि सपा प्रमुख अपने परिवार को एक जुट नहीं रख पाए और उन्हें अपनी यादव बिरादरी का भी विश्वास हासिल नहीं है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि अखिलेश यादव, मायावती की सियासी बिसात के प्यादे बनकर रह गए हैं।
इसीलिए वह मायावती के खिलाफ मुंह नहीं खोल पा रहे हैं। जबकि मायावती दोनों हाथ में लड्डू लेकर चल रही हैं। एक तरह तो मायावती, अखिलेश से गठबंधन तोड़ कर अगले विधानसभा उप- चुनाव अकेले लडऩे की बात कर रही हैं तो दूसरी तरफ बहनजी ने यह गुंजाइश भी छोड़ रखी है कि आगे चलकर फिर गठबंधन हो सके । राजनैतिक पंडित कहते हैं कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने पिछली बार की तरह आरोप- प्रत्यारोप के साथ गठबंधन नहीं तोड़ा है। इसलिए उनके लिए आगे का रास्ता खुला है। अगर भाजपा का सियासी पारा इसी तरह से चढ़ा रहा तो आश्चर्य नहीं होगा कि भविष्य में अपनी जरूरत के अनुसार मायावती कुछ शर्तों के साथ फिर समाजवादी पार्टी से गठबंधन बना ले। स्थिति यह है कि एक तरफ बसपा सुप्रीमो मायावती ने गठबंधन तोड़ दिया है तो दूसरी तरफ प्रदेश का मुरादाबाद मंडल, जहां सभी छह सीटों पर गठबंधन के प्रत्याशियों की जीत हुई थी।
आज भी गठबंधन की सफलता का गुणगान कर रहे हैं। पार्टी के नेता अब भी कह रहे हैं कि उन्हें लिखित रूप से इस बात की जानकारी नहीं दी गई है कि गठबंधन टूट गया है। जब तक यह जानकारी हमें नहीं मिलेगी हम कैसे मान लें कि गठबंधन टूट गया है। मुरादाबाद मंडल में गठबंधन प्रत्याशी के रूप में जिस तरह से सपा- बसपा उम्मीदवारों की जीत हुई थी, ऐसे में नेता गठबंधन न तोडऩे की नसीहत भी देते हुए नजर आ रहे हैं। गौरतलब है कि दोनों पार्टियों का गठबंधन अभी सिर्फ पांच माह ही पुराना है। 12 जनवरी को लखनऊ में संयुक्त प्रेसवार्ता करके दोनों पार्टी के राष्ट्रीय नेताओं ने लोक सभा चुनाव में गठबंधन करके लडऩे का ऐलान किया था। लोक सभा चुनाव जीतने के लिए सपा-बसपा ने 25 साल पुरानी दुश्मनी को भुलाकर गठबंधन किया था। इसी गठबंधन के चलते रामपुर, मुरादाबाद, सम्भल में सपा और अमरोहाए बिजनौर व नगीना में बसपा प्रत्याशियों को जीत मिली थी।
अजय कुमार
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)