होता रहा है इंटेलिजेंस का प्रयोग

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नरेंद्र मोदी के प्रभाव से बहुत पहले था नेहरू-गांधी का दबदबा। अपनी किताब ‘ओपन सीक्रेट्स, इंडिया इंटेलिजेंस अनवील्ड’ में इंटेलिजेंस के पूर्व जॉइंट डायरेक्टर एमके धर लिखते हैं कि कैसे इंदिरा गांधी ने अपनी बहू मेनका गांधी की जासूसी के आदेश दिए, कैसे राजीव गांधी सरकार ने राष्ट्रपति ज्ञानी जै़ल सिंह की इस हद तक जासूसी की कि वे ऑफिस की बजाय राष्ट्रपति भवन के मुगल गार्डन में निजी बैठकें करने लगे। फिर भाजपा समर्थक मोदी सरकार पर मोबाइल फोन हैक करवाने के अपुष्ट आरोपों पर हंगामा क्यों कर रहे हैं? क्योंकि इस मामले में तब की जासूसी और अब की हैकिंग के बीच जरूरी अंतर को ही नहीं समझा जा रहा है।

इसमें शक नहीं कि भारतीय राज्य हमेशा ‘जासूसी-राज्य’ रहा है। इंटेलीजेंस एजेंसियों के बड़े नेटवर्क का इस्तेमाल राजनीतिक निगरानी के लिए होता रहा है। ज्यादातर भारतीय प्रधानमंत्रियों की सोच रही है कि दुश्मन सिर्फ सीमाओं से बाहर नहीं, बल्कि आस-पास भी है। सत्ता के साथ यह वहम भी आता है कि आसपास मौजूद लोगों पर भरोसा नहीं कर सकते।

यह जितना इंदिरा के मामले में सच था, उतना ही मोदी के मामले में है। लेकिन दोनों दौर की जासूसी में गुणात्मक और मात्रात्मक अंतर है। इस दौर में निगरानी ज्यादा व्यापक और तकनीक आधारित हुई है। व्यक्तिगत गोपनीयता पर आक्रमण पहले से कहीं अधिक है। पुराने दौर में जासूसी सिर्फ किसी का पीछा करने या लैंडलाइन में सेंध लगाने तक सीमित थी। लेकिन अब फोन में लगातार घुसपैठ करने वाली पेगासस जैसी तकनीक आने पर जवाबदेही तय करने की प्रक्रिया भी कहां से शुरू होगी।

अभी चल रही जांच के मुताबिक 300 ‘रसूखदार’ भारतीय पेगासस स्पाईवेयर के ‘संभावित’ शिकार हो सकते हैं। अगर एक व्यक्ति का फोन भी राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे के बिना हैक किया जाता है तो यह प्रथमदृष्टया गैरकानूनी है। जब यह हैकिंग इस स्तर पर पहुंच जाए कि इसका शिकार तथाकथित रूप से राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, केंद्रीय मंत्री, पत्रकार, जज, राजनयिक और यहां तक कि वैज्ञानिक भी हों, तो इसमें शक की गुंजाइश नहीं रह जाती कि न सिर्फ किसी व्यक्ति के निजता के अधिकार का हनन हुआ, बल्कि संवैधानिक लोकतंत्र को इससे चोट पहुंचती है।

फिर भी सरकार इसपर संसद में बहस या जांच का आदेश देने से इनकार कर रही है। क्यों? नागरिक समाज में आक्रोश न होने से लगता है कि भारतीय नागरिकों के एक बड़े वर्ग ने इसके संभावित परिणामों को लगभग नजरअंदाज कर हैकिंग को ‘सामान्य’ मान लिया है। यह डरपोक भारतीय मध्यम वर्ग की सामूहिक अंतरात्मा की जड़ता ही है, जिसपर केंद्र सरकार पेगासस संकट से निपटने के लिए निर्भर है। एक स्तर पर कोरोना और आर्थिक मुश्किलों में उलझी ज्यादातर आबादी को हैकिंग विवाद उतना महत्वपूर्ण नहीं लग रहा।

दूसरे स्तर पर यह प्रतिक्रिया अति-ध्रुवीकृत दौर को दर्शाती है, जिसमें जनता की राय पहले से कहीं ज्यादा बंटी हुई व पक्षपातपूर्ण है। अनवरत प्रोपेगेंडा मशीन से निकला राष्ट्रवादी जोश सभी विरोधी स्वरों को दबा देता है। हैरानी नहीं कि टीम मोदी ने हैकिंग के आरोपों को संसद के मानसून सत्र को प्रभावित करने की वामपंथी संगठनों की ‘विदेशी साजिश’ बताया है। पर एक फ्रांसीसी एनजीओ 45 देशों में स्पाइवेयर हैकिंग का वैश्विक खुलासा भारत के संसदीय चक्र के समय पर ही क्यों करेगा?

सच्चाई यह है कि सरकार जानती है कि अदालत की निगरानी में जांच से सर्विलांस की प्रकृति सामने आने पर उसकी मुश्किलें और बढ़ सकती हैं। इसलिए सरकार यह जवाब नहीं दे रही कि क्या उसकी पेगासस के लिए इजरायली कंपनी से कोई डील हुई थी? इस मुद्दे पर कुछ भी स्वीकार करने का मतलब होगा कि सरकारी एजेंसियों ने गैरकानूनी रूप से फोन हैक किए जो सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम के प्रावधानों का उल्लंघन होगा। यह सरकार ऑक्सीजन की कमी से हुई मौतों, पिछले साल हुए प्रवासी संकट, अर्थव्यवस्था के बेपटरी होने और चीनी घुसपैठ को नकारने का प्रयास करती रही है। वह अब हैकिंग के आरोपों पर संसद में बहस और न्यायिक जांच पर सहमति क्यों देगी?

राजदीप सरदेसाई
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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