हाईकोर्ट का निर्णय : शादी के लिए धर्म-परिवर्तन करना ठीक नहीं

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शादी के खातिर किसी वर या वधू का धर्म-परिवर्तन करना क्या कानूनसम्मत है ? इस प्रश्न का उत्तर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह दिया है कि यह ठीक नहीं है। इस मामले में एक हिंदू लड़के ने एक मुसलमान लड़की से शादी की लेकिन शादी के एक माह पहले उसने उस लड़की को मुसलमान से हिंदू बना लिया और फिर फेरे पढ़कर हिंदू रीति से उसके साथ विवाह कर लिया। अब उसने अदालत में याचिका लगाई कि दोनों के रिश्तेदार उन्हें परेशान कर रहे हैं। अदालत उन पर रोक लगाए। इस पर अदालत का कहना है कि वह इस मामले में कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी, क्योंकि सिर्फ शादी के खातिर धर्म-परिवर्तन कानूनसम्मत नहीं है। इस फैसले का आधार 2014 के एक अन्य फैसले को बनाया गया है, जिसमें एक हिंदू लड़की शादी के कुछ समय पहले मुसलमान बन गई थी।

उस मामले में अदालत ने कुरान-शरीफ के अध्याय दो और मंत्र 221 को उद्धृत करते हुए कहा था कि इस्लाम को समझे बिना मुसलमान बन जाना गलत है। इसीलिए वह धर्म-परिवर्तन भी गलत था। दूसरे शब्दों में कोई हिंदू से मुसलमान बने या मुसलमान से हिंदू बने लेकिन बिना समझ और आस्था के बने तो वह अनुचित है। और यदि वह सिर्फ शादी के लिए बने तो वह भी गैर-कानूनी है। अदालत का यह फैसला मोटे तौर पर निष्पक्ष और ठीक मालूम पड़ता है। यह हिंदू और मुसलमान दोनों के लिए एक-जैसा है लेकिन इस पर कई सवाल खड़े हो जाते हैं। सबसे पहला सवाल तो यही है कि दुनिया में ऐसे कितने लोग हैं, जो किसी धर्म के बारे में सोच-समझकर या पढ़-लिखकर हिंदू या मुसलमान या ईसाई बने हैं ? कितने हिंदुओं ने वेद पढ़कर, कितने मुसलमानों ने कुरान पढ़कर और कितने ईसाइयों ने बाइबिल पढ़कर अपनी धार्मिक दीक्षा ली है ? सारी दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या कुछ लाख भी नहीं होगी।

सभी लोग उसी मजहब में ढल जाते हैं, जो उनके माता-पिता का होता है। मजहबों और संप्रदायों में मतभेद जरुर होते हैं लेकिन वे भी उनके अंगों और उपांगों में बदल जाते हैं। मौलिक सोच हर मजहब का जानी दुश्मन होता है। मौलिक सोच के आधार पर ही नए-नए मजहब, पंथ, आंदोलन, संगठन वगैरह बन जाते हैं लेकिन उनके ज्यादातर अनुयायी भेड़चाल चलते हैं। वे पैसे, पद, रुतबे, यौन-आकर्षण आदि के चलते धर्म-परिवर्तन कर लेते हैं। तो शादी के खातिर यदि कोई धर्म परिवर्तन करता है तो इसमें अजूबा क्या है ? वैसा मेरा सोच है कि सफल शादी के लिए धर्म-परिवर्तन जरुरी नहीं हैं। मैंने सूरिनाम, गयाना, मोरिशस और अपने अंडमान-निकोबार में ऐसे कई सद्गृहस्थों को देखा है, जिनके धर्म अलग-अलग हैं। वे बड़े प्रेम से साथ रहते हैं और समाज में उनकी पूर्ण स्वीकृति भी है। ऐसे जोड़े सिद्ध करते हैं कि इन मजहबों या धर्मों से ज्यादा ऊंची चीज है- इंसानियत।

डा.वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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