हम बदलेंगे, देश बदलेगा

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हाल में नया मोटर वाहन अधिनियम 2019 पर बहुत बहस है। इस पर दो स्वर है। पहला- राजनीतिक, वैचारिक और व्यक्तिगत कारणों से इसके विरोध से संबंधित है। दूसरा- अधिनियम के पूर्ण समर्थन या फिर अधिनियम को आवश्यक मानते हुए भी कठोर प्रावधानों में संशोधन की मांग से जुड़ा है। किंतु इस बहस में जनता के प्रति शासन-व्यवस्था की जवाबदेही और राष्ट्र के प्रति नागरिकों के कर्तव्यों पर मुखर चर्चा का आभाव दिख रहा है, जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अत्यंत अनिवार्य है।

संसद द्वारा पारित और एक सितंबर से प्रभावी मोटर वाहन अधिनियम 2019, अपने जुर्माने की राशि के कारण देश में कौतूहल का विषय बन गया है। समाज के एक वर्ग का दावा है कि इससे लोगों को लाभ कम, नुकसान अधिक हो रहा है। परिणामस्वरूप, अधिनियम की कठोर धाराओं के कारण विपक्षी दल ही नहीं, भाजपा शासित राज्यों की सरकार भी इसे लागू करने से बच रही है या फिर उसमें राज्य स्तर पर संशोधन कर दिया गया है। उत्तरप्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, ओडिशा, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, केरल, प.बंगाल, तेलंगाना जैसे राज्यों में यह कानून लागू नहीं हुआ है। जबकि दिल्ली, गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, त्रिपुरा, बिहार, झारखंड, हरियाणा इत्यादि राज्यों में या तो अधिनियम लागू है या फिर येन-केन-प्रकारेण परिवर्तनों/शर्तों के साथ इसे क्रियान्वित करने की घोषणा की गई है।

सच तो यह है कि ‘लोकलुभावन’ नीतियों को बढ़ावा देने में अव्वल राजनीतिज्ञ- जुर्माने की राशि को लोगों पर बोझ बताकर न केवल जनता को भ्रमित कर रहे है, अपितु उन्हे यातायात नियमों का सख्ती से पालन करने के प्रतिकूल पुरानी व्यवस्था के अनुसार, परोक्ष रूप से नियमों को तोड़ने और उससे सस्ते में बचकर निकलने के लिए प्रेरित भी कर रहे है। यदि किसी परिवार में कमाने वाले एकमात्र सदस्य की सड़क दुर्घटना में मौत हो जाती है, तो क्या शेष परिजन भावनात्मक रूप से टूटने के साथ गंभीर वित्तीय संकट से नहीं घिर जाते है? जब पीड़ित परिवार इस प्रकार के मामलों के बाद आर्थिक बोझ से दबने लगते है, तब क्या वह संबंधित ‘लोकलुभावन नीतियों’ से लाभांवित होते है? शायद नहीं।

एक आंकड़े के अनुसार, 70 प्रतिशत से अधिक भारतीयों के पास आकस्मिक मृत्यु संबंधी बीमा तक नहीं है। भले ही मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2015 से लागू प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के अंतर्गत, 33 करोड़ भारतीयों का 12 रु/प्रतिवर्ष पर 2 लाख रुपये का बीमा हो चुका है- लेकिन क्या यह नए मोटर वाहन अधिनियम और उसके कठोर प्रावधानों को लागू करने से रोकने का उचित कारण हो सकता है?

यह विकृत स्थिति तब है, जब वाहनों के मामले में भारत की प्रतिव्यक्ति हिस्सेदारी दुनिया में केवल 2 प्रतिशत है, जबकि वह यातायात संबंधी हादसों में 12 प्रतिशत के साथ शीर्ष देशों में शामिल है। वर्ष 2016 में डेढ़ लाख से अधिक लोगों ने सड़क दुर्घटनाओं में अपनी जानें गंवाई थी, जिसमें 72 प्रतिशत मृतक 18-45 आयुवर्ग के थे। इन हादसों का नुकसान संबंधित पीड़ित परिवार तो झेलता ही है, साथ ही देश की आर्थिकी भी इससे प्रभावित होती है। संयुक्त राष्ट्र के एशिया और प्रशांत आर्थिक एवं सामाजिक आयोग (यूएनएस्केप) ने वर्ष 2016 में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसके अनुसार- सड़क दुर्घटनाओं के कारण भारत को प्रतिवर्ष 58 अरब डॉलर अर्थात सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 3 प्रतिशत नुकसान उठाना पड़ता है। इस मामले में भारत केवल जापान से पीछे है, जिसे सालाना 63 अरब डॉलर की क्षति होती है।

सच तो यह है कि हमारे देश में ऐसे ‘महानुभावों’ की कोई कमी नहीं है, जो न तो किसी यातायात कानून/नियम को मानते हैं और न ही इसे तोड़ने व इसके गंभीर परिणाम भुगतने से डरते हैं। गत माह दिल्ली स्थित बारापुला फ्लाईओवर पर स्कूटर सवार व्यक्ति इसलिए दुर्घटना का शिकार हो गया, क्योंकि वह नियमों के प्रतिकूल उलटी दिशा में तेज रफ्तार से अपना वाहन ले जा रहा था। यह कोई अपवाद नहीं है। वर्ष 2018 में हेलमेट के बिना दोपहिया वाहन चला रहे 43,600 चालकों की सड़क हादसे में मौत हो गई थी, इसमें उत्तरप्रदेश के अकेले लगभग 6,000 मामले शामिल है। उसी अवधि में दोपहिया वाहनों में पीछे की सीट पर बिना हेलमेट के बैठे 15,000 से अधिक लोग भी सड़क हादसे में मारे गए थे। इसी तरह, चौपहिया वाहनों में सीटबेल्ट नहीं पहनने के कारण वर्ष 2018 में 24,000 से अधिक चालकों की मौत हो गई थी।

देश के अधिकतर युवाओं की पहली पसंद दोपहिया वाहन- विशेषकर मोटरबाइक है, जो तुलनात्मक रूप से सस्ता निजी परिवहन होने के साथ आकर्षक भी होता है। किंतु ऐसे ही वाहन सड़क दुर्घटनाओं में सर्वाधिक- 34 प्रतिशत, हादसे के शिकार होते है, जिसमें 30 प्रतिशत चालकों की अक्सर मौत हो जाती हैं। हल्के वाहनों में छोटी कार, जीप और टैक्सियों की सड़क दुर्घटनाओं में हिस्सेदारी 24.5 है, जिसमें चालकों की मृत्यु दर 21 प्रतिशत है।

शेष विश्व की भांति भारत में भी मोटरवाहन चलाने हेतु लाइसेंस अनिवार्य है। देश में इसके लिए मुख्यत: दो परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है। किंतु अधिकतर अप्रशिक्षित आवेदक घूस देकर एजेंट/दलाल और भ्रष्ट विभागीय अधिकारियों के माध्यम से बिना किसी परीक्षण के लाइसेंस प्राप्त कर लेते है, जो सड़क पर किसी यमदूत से कम नहीं होते है। स्पष्ट है कि आवश्यक प्रशिक्षण के साथ सीटबेल्ट और हेलमेट इत्यादि सुरक्षात्मक चीजों का उपयोग करने से सड़क पर होने वाली दुर्भाग्यपूर्ण मौतों को कम किया जा सकता है।

इस पृष्ठभूमि में यक्ष प्रश्न है कि क्या सख्त नियमों और उसके उल्लंघन पर भारी जुर्माना लगाने से व्यापक परिवर्तन संभव है? शायद कुछ सीमा तक, परंतु पूरी तरह नहीं। यह कटु सत्य है कि स्थानीय प्रशासन के भ्रष्टचार, अकर्मण्यता और लापरवाही के गर्भ से जनित ‘पोथहोल्स’ (सड़क के गड्ढे) भी देश में हजारों जानें लील चुके है। अकेले वर्ष 2015-17 में सड़कों पर गड्ढे होने से हुई दुर्घटनाओं में लगभग 10,000 लोगों की मौत हो गई थी, जबकि 25,000 से अधिक लोग गंभीर रूप से घायल हो गए। बरसात के समय सड़क पर खुले सीवरेज मैनहोल इस स्थिति को और अधिक भयावह बना देते है। यही नहीं, सड़क किनारे और पैदलपथ मार्ग पर भी भ्रष्टचार की कोख से निकले अतिक्रमण और अवैध पार्किंग- यातायात संबंधी समस्या को जटिल बनाने में मुख्य भूमिका निभा रहे है।

सड़कों पर घूमते आवारा पशु भी यातायात व्यवस्था के लिए चुनौती बने हुए है। इसके भी दो कारण है। पहला- शासन व्यवस्था इस संबंध में आवश्यक निर्णय लेने से बचता है और यदि वह कोई कदम उठाना भी चाहे, तो तथाकथित पशु-अधिकार संगठन बिना किसी वैकल्पिक उपाय के अवरोधक बन जाते है।

दूसरा- हममें से अधिकांश लोगों को अपने घरों का कचरा (निचली स्तर की पॉलिथिन सहित) सड़कों, नालियों, नदियों, उद्यानों और पर्यटक स्थलों पर फेंकने की ‘विशेष दक्षता’ प्राप्त है। एक तो स्थानीय प्रशासन अधिकतर सड़क किनारों पर कूड़ेदान की समुचित व्यवस्था नहीं करता है और यदि कहीं ऐसी व्यवस्था प्रकट हो भी जाएं, तब भी समाज के अधिकतर ‘जिम्मेदार नागरिक’ इधर-उधर कचरा फेंकने के चिर-परिचित स्वभाव से बाज नहीं आते है। परिणामस्वरूप- भोजन की तलाश में भटक रहे आवारा गोवंश (गाय सहित), श्वान, बिल्ली, बंदर जैसे पशु सड़कों या पैदलपथ मार्ग पर जमा कूड़े के ढेर तक पहुंच जाते है, जिससे सड़क पर दुर्घटना का खतरा बना रहता है। केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय के अनुसार, अकेले पंजाब में ही वर्ष 2016 में आवारा पशुओं के कारण सड़क दुर्घटनाओं में 38 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई थी।

सड़क यातायात उल्लंघन पर भारी जुर्माना लगाने से आमूलचूल परिवर्तन की कल्पना- दिव्य स्वप्न है। आवश्यकता है कि राजग-3 सरकार देश में स्वच्छ भारत अभियान की भांति यातायात से संबंधित कोई व्यापक आंदोलन चलाएं, जिसमें सरकार के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर पर विभिन्न राजनीतिक दलों, आम नागरिकों और मान्यता प्राप्त सामाजिक संगठनों की समान भागीदारी हो।

यह कितना हास्यापद है कि जो भारतीय अपने देश में कानून/नियमों तोड़ने और गंदगी फैलाने में हिचकते नहीं है, वह अक्सर, विदेशों में साफ-सफाई और यातायात नियमों के सबसे बड़े प्रशंसक होते है। यह सत्य है कि हममें से प्रत्येक लोग, वह चाहे आम नागरिक हो या फिर सरकार में बैठे अधिकारी और कर्मचारी- वर्तमान स्थिति से दुखी है और उन्नति के लिए बदलाव चाहते है। परंतु उन्हीं में से अधिकांश लोग स्वयं में और अपनी आदतों में बदलाव लाने को तैयार नहीं है। ऐसे में क्या यह संभव है कि हम (देश के सभी नागरिक) बदलें नहीं और देश एकाएक बदल जाएं?- नहीं। मैं आशा करता हूं कि पाठक इस बारे में सोचेंगे।

बलबीर पुंज
लेखक भाजपा से जुड़े हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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