सियासी प्रलाप का समय नहीं

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जो हिम्मत नहीं हारते, वे घटाटोप अंधेरे में भी रोशनी खोज लेते हैं। कोरोना महामारी को लेकर वैश्विक परिदृश्य में भी आगे बढऩे और जूझने की यही एक युक्ति हो सकती है। यह सियासी प्रलाप का समय नहीं है। एक-दूसरे को टोपी पहनाने का भी समय नहीं है। इस सच को स्वीकारने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि बहुत कुछ बदल रहा है। इसमें पारंपरिक सियासत भी है। हालात इस कदर बदले हैं कि स्वानुशासन पर चलना अपरिहार्य हो गया है। सफाई और शारीरिक दूरी का महत्व नये संदर्भों में रेखांकित हुआ है। एक ही कतार में दुनिया संकट से निपटने का संकल्प लिये खड़ी दिखती है। यहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का यह कथन सत्य के करीब जान पड़ता है कि मौजूदा संकट से राहत के बाद भी स्वच्छता, मास्कस और एक निश्चित शारीरिक दूरी लोगों की दिनचर्या का हिस्सा बनने वाली है। इन दिनों जिस तरह नदियां साफ.सुथरी दिखती हैं, और वायु और ध्वनि प्रदूषण सिरे से नदारद है, इससे इसका आगे भी महत्व रहने वाला है।

इस संकट ने बचत के साथ ही प्रकृति के महत्व को समझने का एक मौका दिया है, जो आत्मकेन्द्रित होड़ में भुला दिया गया था कि किसी का भी अस्तित्व अकेले दम पर नहीं है। पूरी कायनात का एक सूत्र वो है सह-अस्तित्व, इसे विस्मरण करने का परिणाम है मौजूदा संकट। हाशिये पर जाती प्रतिरोधी क्षमता ने मानव समाज के सामने नई चुनौती पैदा कर दी है। हर्बल सप्लीमेंट्स की वकालत होने लगी है। आयुर्वेद की तरफ पूरी दुनिया का ध्यान गया है। इस स्थिति को शोधपरक मान बिन्दुओं का पालन करते हुए अवसर में बदलने का समय है। खुद प्रधानमंत्री ने इस संभावना को धरातल पर साकार करने के लिए श्रमसाध्य पहल करने की जरूरत बताई है। सोमवार को मुयमंत्रियों की राय जानने के बाद संभावना है कि शनिवार तक प्रधानमंत्री कोई राहत पैकेज का ऐलान कर सकते हैं। पर इसका असल फायदा लोगों तक तभी पहुंच सकता है जब जिन माध्यमों से इसे लागू किया जा रहा है, वहां पादर्शिता हो। यह सवाल इसलिए कि इस त्रासदी के दौर में भी कुछ लोग सरकारी सुविधाओं का बंटरबांट करने से बाज नहीं आ रहे।

जिस तरह कुछ राज्यों से शिकायत सामने आयी थी कि वहां दाल अभी तक नहीं पहुंची है जबकि सरकार ने गरीबों के लिए मुफ्त एक किलो दाल दिये जाने की व्यवस्था की थी। पर उपभोक्ता विभाग से जुड़े कर्मियों की मिलीभगत के कारण लोगों तक दाल नहीं पहुंची। इसे लेकर उपभोक्ता मंत्री रामविलास पासवान की नाराजगी के बाद दोषी अफसरों पर गाज गिरी है। संकट के समय भी कुछ लोगों के निहित स्वार्थ के कारण स्थिति और गंभीर हो जाती है। अब यह ओछी हरकत करने वालों को तो खुद ही इस संकट की घड़ी में विराम देना होगा। पीएमए मंत्री और कोई मुख्यमंत्री कहां तक नजर रखेंगे! यह हम सबकी सामूहिक जिमेदारी है। प्रवासी मजदूरों को लेकर लोगों को राजनीति करना तो पसंद है लेकिन सरकार के साथ कदम मिलाकर साथ चलने की मंशा नदारद है। विपक्ष तो समानांतर निगरानी तंत्र होता है। सिर्फ बयानबाजी से ऊपर उठने का यह समय है। मिल-जुलकर सहयोग और सहकार की जरूरत है।

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