जिस तरह एक-एक करके अभिनय जगत के दो महत्वपूर्ण सितारे अतीत का हिस्सा बन गये, वो सिनेजगत का शोककाल नहीं तो और क्या है? बुधवार को खबर आयी कि जाने-माने फनकार इरफान खान ने मुंबई के कोकिलाबेन अस्पताल में दम तोड़ दिया। इससे बालीवुड ही नहीं, बल्कि उनकी पूरी फैन फालोइंग स्तध रह गयी। ब्रेन की बीमारी से उबरने के बाद उन्होंने आखिरी फिल्म अंग्रेजी मीडियम की थी। अपनी आंखों से अभिनय के जरिये किरदारों को साकार करने वाले इरफान अनोखे अभिनेता थे। उनके असमय अवसान से शोक का वातावरण अभी लोगों के जेहन में था ही कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी और बेबाकी प्रतीक ऋषि कपूर के जाने की खबर गुरुवार शोक को और गहरा कर गयी। देश में कोरोना से जंग के चलते जारी लॉकडाउन के बीच इन दोनों सितारों का जाना तो सिनेजगत के लिए एक बड़ा नुकसान इसलिए भी रहा कि सीमित पारिवारिक सदस्यों के अतिरिक्त किसी और को उनके अंतिम दर्शन की अनुमति भी नहीं मिल पायी।
इन दोनों महान शख्सीयतों के अंतिम दर्शन से वंचित रह जाने का दुख निश्चित तौर पर ताउम्र रहने वाला है। यह सच है कि यहां कोई सदा के लिए रहने वाला नहीं है, एक दिन सबको जाना ही होता है। फिर भी लोगों में यह मलाल तो बना ही रहेगा कि कॉश लॉकडाउन ना होता। जीभर के अंतिम दर्शन कर पाते। रिश्तेदारों, मित्रों के अलावा चाहने वालों को यह मौका भी नसीब न हो सका। हालांकि दोनों कलाकारों का अभिनय के क्षेत्र में किया गया योगदान उन्हें लोगों के जेहन में जीवंत बनाये रखेगा। अंतत: तो लोग अपने किरदार की बदौलत की याद रह जाते हैं। इरफान और ऋषि हालांकि अलग दौर के कलाकार रहे हैं, फिल्में भी तकरीबन अलग पृष्ठभूमि की रहीं पर इस सबके बीच एक सौम्यता यह रही कि कि दोनों का अभिनय, अभिनय से ऊपर उठकर था अर्थात सहज और सरल अभिव्यक्ति दोनों की खूबी थी। ऋषि कपूर का कैरियर ग्राफ निश्चित तौर पर लम्बा रहा है। 80 के दशक के रोमांटिंक हीरो के तौर पर उनकी एक अलग पहचान थी। उनकी प्रतिभा का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि फिल्म बॉबी से उन्होंने डेयू किया था, उनकी यह पहली फिल्म थी।
इस फिल्म में उन्हें अपने सशक्त अभिनय के लिए फिल्म फेयर अवार्ड मिला था। कालांतर में उन्होंने हीरो से इतर की भूमिकाएं कीं। चरित्र प्रधान अभिनय के लिए उन्हें भरपूर सराहा गया। अपनी बेबाकी के लिए काफी मशहूर थे और उसूल के भी पक्के थे। उनकी एक किताब पिछले वर्षों में खुल्लम खुल्ला शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक में उन्होंने बड़ी साफगोई से स्वीकार किया था कि तमाम महत्वपूर्ण फिल्में अमिताभ बच्चन के साथ उन्होंने की लेकिन सफलता का क्रेडिट देने में बच्चन की तरफ से उन्हें कंजूसी बरती गयी। इससे पता चलता है कि उनका व्यक्तित्व कितना पारदर्शी था। कोई और होता तो इसे सार्वजनिक करने से पहले सौ बार सोचता। यही नहीं, उन्होंने उस किताब में यह भी स्वीकार करने में संकोच किया कि एक समय वह अवसाद का शिकार हो गये थे। इसी तरह एक वाकया उनके उसूल से भी जुड़ा हुआ है। उनके बारे में यह सबको पता था कि रविवार को वह शूटिंग से दूर रहा करते थे। पर एक बार उनके घर आरके बैनर की फिल्म में भी जब रविवार को शूटिंग की बात कही गयी तो उन्होंने सिरे से नकार दिया। दोनों कलाकारों का फलक बहुत बड़ा है, समेटा नहीं जा सकता।