सरकार की राजनीतिक चुनौतियां

0
219

यह बहुत दिलचस्प है और कुछ हद तक दुर्भाग्यपूर्ण भी कि भारत में पार्टियों की तरह सरकारों के सामने भी हमेशा राजनीतिक चुनौतियां ही होती हैं। ऐसा नहीं है कि राजनीतिक चुनौती पार्टियों के सामने है और सरकारों के सामने आर्थिक, सामरिक, कूटनीतिक या सामाजिक चुनौतियां हैं। सरकारों के सामने भी राजनीतिक चुनौती ही होती है। दुनिया के विकसित लोकतांत्रिक देशों में ऐसा नहीं होता है। वहां राजनीतिक चुनौती सिर्फ चुनाव के समय होती है और एक बार चुनाव जीत कर सरकार बनने के बाद बाकी चुनौतियों से निपटने पर ध्यान दिया जाता है। भारत में ऐसा नहीं होता है। भारत में एकमात्र चुनौती राजनीतिक होती। यहां नेता बाकी किसी चीज को चुनौती नहीं मानते हैं। वे मानते हैं कि उनकी सरकार बन गई तो फिर देश के सामने कोई चुनौती नहीं है। उनका यह भी मानना है कि आर्थिक मंदी, सामाजिक विभाजन, टकराव, सामरिक विफलता आदि की जो बातें हैं वह विपक्ष का प्रोपेगैंडा हैं, जो वे सरकार को बदनाम करने के लिए कर रहे हैं।

इसलिए बाकी मसलों की बजाय सरकार के सामने नए साल में राजनीतिक चुनौतियां ही हैं, जिनकी चिंता उसे करनी है। अगर कोई व्यक्ति या राजनीतिक विश्लेषक नागरिकता कानून या राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर आदि पर देश भर में चल रहे विरोध प्रदर्शन को सरकार के लिए चुनौती मान रहा है तो वह गलतफहमी में है। यह चुनौती नहीं एक अवसर है, जो जान बूझकर पैदा किया गया है ताकि राजनीतिक चुनौतियों से निपटा जा सके। नागरिकता कानून और नागरिक रजिस्टर पर चल रहे विवाद ने सरकार को यह मौका दिया है कि वह बाकी सारे मसलों से लोगों का ध्यान हटा सके, मतदाताओं का ध्रुवीकरण करा सके और अपनी राजनीतिक चुनौती से बेहतर ढंग से निपट सके।

हालांकि इसके बावजूद 2020 की राजनीतिक चुनौती से निपटना सरकार और सत्तारूढ़ दल के लिए आसान नहीं होगा। यह अच्छा है जो 2020 में सिर्फ दो ही राज्यों में चुनाव हैं। साल के शुरू में दिल्ली में और साल के अंत में बिहार में चुनाव होगा। दोनों को लेकर अलग अलग चुनौती सरकार के सामने है। दिल्ली में चुनाव जीतने की चुनौती है तो बिहार में अपनी पुरानी सहयोगी पार्टी जनता दल के साथ गठबंधन बनाए रखने और बराबर सीटें लेकर चुनाव लड़ने भर की चुनौती है। वहां को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा ज्यादा चिंतित नहीं है। उनको लग रहा है कि चुनाव नीतीश कुमार के चेहरे पर होना है, जिसमें एडवांटेज भाजपा गठबंधन को रहना है। वहां सिर्फ सीट बंटवारे की चिंता करनी है।

असली चिंता दिल्ली की है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल ने अपने पांच साल के कामकाज पर चुनाव लड़ने का मूड बना दिया है। दिल्ली के लोग इसी आधार पर पार्टियों की तुलना कर रहे है। भाजपा के लाख प्रयास के बावजूद नागरिकता कानून दिल्ली में मुद्दा नहीं बन पा रहा है। अरविंद केजरीवाल ने यह सुनिश्चित किया है कि उनकी पार्टी कहीं भी इसके समर्थन या विरोध के आंदोलन में शामिल होते नहीं दिखे। उन्होंने सैद्धांतिक रूप से इसका विरोध कर दिया है पर वे इसे मुद्दा नहीं बना रहे हैं। चुनाव प्रचार शुरू होने पर भाजपा के नेता उनसे इस मसले पर अपना रुख स्पष्ट करने की मांग करेंगे पर उस समय भी वे चुप रहेंगे और अपने कामकाज का ही प्रचार करेंगे। दिल्ली में चूंकि नागरिकता आंदोलन एक खास इलाके में सिमटा हुआ है इसलिए आप को ज्यादा राजनीतिक नुकसान की चिंता नहीं है। उस खास इलाके में ध्रुवीकरण का फायदा भाजपा उठा सकती है पर वह स्थिति पूरे प्रदेश की नहीं बनने वाली है।

दिल्ली के अलावा दूसरी बड़ी राजनीतिक चुनौती जम्मू कश्मीर की है। वहां एक साल से ज्यादा समय से विधानसभा भंग है और राष्ट्रपति शासन लगा हुआ है। इस साल अगस्त में जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने के बाद से पूरे प्रदेश में कई किस्म की पाबंदी भी लगी हुई है और विपक्षी पार्टियों के नेताओं को हिरासत में रखा गया है। सरकार ने धीरे धीरे नेताओं की रिहाई शुरू की है पर ज्यादातर बड़े नेता लोक सुरक्षा कानून यानी पीएसए के तहत बंद हैं और उनकी रिहाई तत्काल नहीं होने वाली है। चुनाव भी जल्दी होने के आसार नहीं हैं। इससे दुनिया भर में भारत की छवि प्रभावित हो रही है।

खबर है कि कश्मीर को लेकर इस्लामिक देशों का एक सम्मेलन अप्रैल में होने वाला है। पहले खबर थी कि सऊदी अरब की ओर से इसका आयोजन हो रहा है पर अब कहा जा रहा है कि पाकिस्तान की पहल पर यह आयोजन हो रहा है। आयोजन चाहे पाकिस्तान की पहल पर हो रहा हो पर इसमें संदेह नहीं रखना चाहिए कि सऊदी अरब का इसको समर्थन होगा। चीन और पाकिस्तान पहले से कश्मीर मामला संयुक्त राष्ट्र संघ के सामने उठा रहे हैं। सो, कश्मीर के घरेलू राजनीतिक हालात दुनिया भर में भारत के लिए एक कूटनीतिक चिंता का कारण बने हैं।

भाजपा और केंद्र की सरकार के सामने तीसरी बड़ी राजनीतिक चुनौती नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर को लेकर देश भर में चल रहे विरोध प्रदर्शन को हैंडल करने की है। सरकार इसे कैसे संभालती है यह देखने वाली बात होगी। इस पर खास नजर इसलिए भी रखनी है क्योंकि अगले साल यानी 2021 में पश्चिम बंगाल और असम दोनों जगह विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। नागरिकता कानून के असर के लिहाज से ये दो राज्य ही सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले हैं। सो, यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इस मामले को किस तरह से संभालती है। उसका प्रयास इस मुद्दे को ऐसे संभालने का है, जिससे भाजपा को अधिकतम राजनीतिक लाभ मिल सके।

तन्मय कुमार
लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here