शिक्षा का एकीकरण होगा गमेचेंजर

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हमारे देश में व्यावसायिक शिक्षा के प्रति विद्यार्थियों का रुझान हमेशा ही कम रहा है, लेकिन 2020 में आने वाली नई शिक्षा नीति में जिस तरह से व्यावसायिक शिक्षा को मुख्य धारा की शिक्षा से जोडऩे की कवायद की जा रही है, वह एक महत्वपूर्ण कदम है। अभी तक दसवीं के बाद दोनों को अलग-अलग कर दिया जाता था। इसके अलावा भी नई शिक्षा नीति में कई ऐसे प्रावधान किए जा रहे हैं, जिन्हें काफी सकारात्मक कहा जा सकता है। हरेक को यह समझने की जरूरत है कि भारतीय माता-पिता कारपेंटर,प्लंबर, राजगीर या फिटर जैसे लाभदायक व्यवसाय की जगह अपने पुत्र को एक क्लर्क बनाने के सपने को पूरा करने को प्राथमिकता देंगे। यह हमारी सामाजिक मानसिकता और विवाह बाजार का परिणाम है। यही वजह है कि सिर्फ पांच फीसदी भारतीय ही व्यावसायिक शिक्षा को अपनाते हैं, जबकि जर्मनी में 75 फीसदी ऐसा करते हैं। 2020 की नई शिक्षा नीति में मौजूदा सरकार द्वारा इन दोनों को एक करना भारत में रोजगार के स्तर और उसकी अर्थव्यवस्था के लिए एक प्रमुख गेम चेंजर हो सकता है।

सरकार का एक और नीतिगत फैसला विचार में बहुत ही अच्छा है, लेकिन यह शायद ही सफल हो सके। यह है त्रिभाषा फॉर्मूले के माध्यम से राष्ट्रीय एकी करण को बढ़ावा देना। इसके तहत अंग्रेजी, हिंदी के साथ ही उत्तर भारत के स्कूलों में एक दक्षिण भारतीय भाषा व दक्षिण भारत के स्कूलों में एक उत्तर भारत की भाषा को पढ़ाना। यह तीन कारणों से असफल होगा। महाराष्ट्र व पंजाब जैसे गैर-हिंदी भाषी राज्य तीसरी भाषा के तौर पर अपनी क्षेत्रीय भाषा को शामिल करने पर जोर देंगे। दूसरे, सांस्कृतिक रूप से अल्पसंख्यक स्कूलों के सिद्धांत से इस विचार का टकराव होगा, क्योंकि इन स्कूलों की जरूरत उस भाषा को पढ़ाना होगा, जिसकी पहचान उनके अल्पसंख्यक दर्जे से होती है। उदाहरण के लिए राजस्थान में स्थित पंजाबी अल्पसंख्यक स्कूल पंजाबी भाषा ही पढ़ाना चाहेगा। और तीसरे, दुनिया की संस्कृति से रूबरू होने की चाहत के कारण स्पेनिश, जर्मन या मैंडरिन भाषाओं को प्राथमिकता मिल रही है। एक अन्य प्रमुख प्रस्ताव है, परीक्षा लेने वाले संगठनों को नियामक संस्थानों से अलग करना।

यह एक स्वागत योग्य बदलाव है, कयोंकि यह सीबीएसई जैसी संस्थाओं के एक तरफा नियंत्रण और नियमित नीतिगत बदलावों को कम करेगा। पांच साल से कम उम्र में प्रारंभिक शिक्षा की जरूरत को समझने का भी स्वागत किया जाना चाहिए। इससे सरकारी स्कूलों व निजी स्कूलों का अंतर कुछ हद तक कम हो सकेगा। अमेरिका में प्राइमरी स्कूल के शिक्षकों का सम्मान होता है और उन्हें पुरस्कृत किया जाता है। उम्मीद करते हैं कि नई नीति के इस पहलू का भारत में भी ऐसा ही असर होगा, विशेषकर यह देखते हुए कि यही वह उम्र है, जब दिमाग का विकास अपने चरम पर होता है। स्कूलों का प्रशासन स्कूल परिसरों के माध्यम से चलाना एक बड़ा विचार है, इससे मानव संसाधनों व तकनीकी संस्थानों की साझेदारी की शुरुआत हो सकेगी। यह बच्चों के लिए नए अवसर भी पैदा करेगा। इसके अलावा करीब 10 फीसदी बच्चों के लिए नए अवसर पैदा करना विशेष जरूरत वाले बच्चों की शिक्षा को शामिल करना होगा। निश्चित तौर पर इसका मतलब इस बहुत ही विशेषज्ञता वाले और महत्वपूर्ण क्षेत्र में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए सुविधाएं जुटाना होगा। अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया और इस्राइल ने अपनी अर्थव्यवस्थाओं को रिसर्च के माध्यम से विकसित किया है।

भारत में रिसर्च के लिए फंड का आवंटन वास्तव में लगातार घट रहा है और दशकों से कोई भी स्वदेशी नवाचार नहीं हुआ है। अमेरिका को रिसर्च कार्यक्रमों में भारतीय प्रतिभाओं से बहुत फायदा हुआ है। अगर, नई नीति रिसर्च के लिए अधिक फंड जुटाने और स्कूलों में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का स्तर बढ़ाने में सफल होती है तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को बहुत लाभ पहुंचाएगी। इस नई नीति का सबसे महत्वपूर्ण पहलू मेरे विचार में यह पैराग्राफ है कि स्कूल जब तक एनसीएफ और एससीएफ के साथ संरेखित रहेंगे, उनको कोई भी पाठ्यक्रम चुनने या खुद विकसित करने की पूरी स्वतंत्रता होगी। यह जवाबदेही के साथ असली स्वायक्कता होगी और न केवल अच्छी शिक्षा को प्रोत्साहित करेगी, बल्कि अब तक उपेक्षित रही सॉफ्ट स्किल का विकास भी करेगी। कुल मिलाकर मैं इस बात पर जोर देना चाहूंगा कि नई शिक्षा नीति में अच्छी टीचर ट्रेनिंग और साल में अनिवार्य प्रशिक्षण कितना ही प्रमुख हो पर पढ़ाने और सीखने के स्तर की गुणवत्ता पूरी तरह से मूल्यांकन की प्रक्रिया पर निर्भर करेगी। जब तक अंतिम लक्ष्य बोर्ड परीक्षा में अच्छे अंक लाना रहेगा, शिक्षक व स्कूल केवल इसी उद्देश्य के लिए पढ़ाएंगे और किताबी शिक्षा से आगे सीखना एक दूर का सपना बना रहेगा।

डॉ. सुमेर सिंह
(विख्यात शिक्षाविद हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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