विपक्ष पहले एक तो हो..

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भारतीय राजनीति में संयुक्त विपक्ष अब भी एक मृगतृष्णा के समान है। अतीत में कुछ मौके आए थे जैसे 1977, 1989, 1996 और 2004 में जब पार्टी लाइन और वैचारिक बाधाओं को पार कर विपक्षी दल एक हुए। लेकिन हर बार विपक्षी दलों की यह एकता कुछ माह ही चली और फिर दम तोड़ गई। हाल के सप्ताह में विपक्षी दलों के एक होने का सुर फिर से तेज सुनाई देने लगा है। लेकिन यह ध्यान रखना होगा कि चुनावों में अब भी पूरे तीन साल बाकी हैं। कुछ माह तक भी साथ न चल सकने वालीं विपक्षी पार्टियां क्या तीन साल तक साथ-साथ चल पाएंगी? यह ऐसा बड़ा सवाल है जिसका जवाब हां में थोड़ा कम है, ना में ज्यादा।

16 राज्यों में विधानसभा चुनाव पहली परीक्षा

गोवा, पंजाब, उत्तराखंड, उप्र व मणिपुर में फरवरी 2022 में, गुजरात व हिमाचल में दिसंबर 2022 में, मेघालय, त्रिपुरा, नगालैंड में मार्च 2023 में, कर्नाटक में मई 2023 में जबकि मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में दिसंबर 2023 में विधानसभा चुनाव होने हैं। इन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव विपक्षी एकता के लिए अग्नि परीक्षा साबित हो सकते हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जहां कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी होगी तो अन्य जगहों पर आप, समाजवादी पार्टी, बसपा और अन्य क्षेत्रीय दल कांग्रेस से आगे निकलने की कोशिश में होंगे।

अचानक क्यों जागे विपक्षी

विपक्ष के तमाम दलों को इस समय एक बड़ा तथ्य साथ ला रहा है और वह है राहुल गांधी। अगर 2024 के चुनावों में कांग्रेस बहुत चमत्कारी प्रदर्शन नहीं करती है, तो राहुल शायद ही प्रधानमंत्री पद के लिए दावा पेश करेंगे। राहुल की योजना पर भरोसा करें तो जब तक कांग्रेस लोकसभा चुनावों में अपने दम पर बहुमत नहीं लाती, तब तक पार्टी शीर्ष पद के लिए दावेदारी पेश नहीं करेगी। आज के हालात में तो अगर कांग्रेस अपने दम पर 100 सीटें भी जीत लेती है तो वह चमत्कार ही होगा। इसलिए तमाम छोटे-बड़े विपक्षी दलों के बीच यह संकेत साफ है कि प्रधानमंत्री का पद किसी को भी मिल सकता है, बशर्ते वह कम से कम 50 सीटें ला सके और गैर कांग्रेस दलों में उसकी स्वीकार्यता हो।


राह में दो मुश्किलें…

  1. एक करने वाले नेता का अभाव
  • आपातकाल के बाद जब 18 जनवरी 1977 को इंदिरा गांधी ने लोकसभा चुनावों की घोषणा की थी, उस समय विपक्ष के जहाज को खेने के लिए एक मजबूत कैप्टन मौजूद था – जयप्रकाश नारायण। तब जेपी ने कहा था कि अगर सभी विपक्षी दल एक यूनिट बनाते हैं तो वे उनके पक्ष में प्रचार करने को तैयार होंगे। परिणामस्वरूप कांग्रेस (ओ), जनसंघ, संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय लोक दल ने मिलकर 23 जनवरी 1977 को जनता पार्टी गठित की।
  • 1989 में राजीव गांधी सत्ता में थे। तब राजीव को सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए विपक्ष को कांग्रेस से ही बाहर आए वीपी सिंह के रूप में अपना खेवनहार मिल गया। राजीव को सत्ता से हटाने के लिए धुर विरोधी – दक्षिणपंथी भाजपा और वामदलों ने भी वीपी सिंह को समर्थन देने के लिए हाथ मिला लिए।
  • 2004 में जब अटल बिहारी की अगुवाई में भाजपा की सीटें (138) कांग्रेस की सीटों (145) से थोड़ी सी कम रह गईं तो वीपी सिंह और सीपीएम के महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने परदे के पीछे रहकर क्षेत्रीय पार्टियों के क्षत्रपों को कांग्रेस को समर्थन देने के लिए मनाया। तब यूपीए का गठन हुआ और वह लगातार 10 साल तक सत्ता में रहा।

आज के हालात में विपक्ष के पास ऐसा एक भी नेता नजर नहीं आ रहा है जो जिसकी सभी दलों में स्वीकार्य हो और जिसका स्वयं का भी मजबूत जनाधार हो। जो खुद के दम पर बेहतर प्रदर्शन करने का माद्दा रखता हो (जैसे वीपी सिंह) और शीर्ष पद से पीछे हटने को तैयार हो (जैसे जयप्रकाश नारायण)।

  1. आपसी हितों में टकराव

विपक्ष से कोई भी प्रधानमंत्री बन सकता है, यही सोच ममता बनर्जी जैसे नेताओं को अपना जनाधार बढ़ाने को प्रेरित कर रही है। ममता जानती हैं कि बंगाल में केवल 42 सीटों के बल पर वे शीर्ष पद पर दावा नहीं कर सकतीं। इसलिए उन्हें अपना आधार बढ़ाना ही होगा। उन्हें असम और त्रिपुरा से कुछ सीटों की दरकार होगी। इसलिए जब हाल ही में सुष्मिता देब ने कांग्रेस का दामन छोड़कर टीएमसी ज्वॉइन की तो इसे यही माना गया कि ममता त्रिपुरा और असम में अपने आधार को मजबूत बनाने में लगी हैं। लेकिन इस सेंधमारी से विपक्षी एकता के प्रयास कितनी जल्दी दम तोड़ देंगे, यह समझा जा सकता है। कांग्रेस में इसको लेकर नाराजगी है तो वही कई क्षेत्रीय दल जैसे आम आदमी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी अपने लिए कांग्रेस को ही सबसे बड़ा खतरा मानते हैं।


विपक्ष केवल इस एक चमत्कार के सहारे…

विपक्षी दल चाहे साथ आएं या ना आएं, उनके लिए उम्मीद की किरण है तो वह केवल यह है कि इसे चाहे भारतीय राजनीति की विशेषता कह लीजिए या लोकतंत्र की खूबी कि चमत्कारी राजनेता को भी अपने राजनीतिक जीवन में गिरावट का दौर देखना पड़ता है और तब क्षेत्रीय खिलाड़ी या गठबंधन की राजनीति मुख्यधारा में आ जाती है। यह हमने 1977, 1989, 1996 और फिर 2004 में देखा जब इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिम्हा राव और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे राजनीति के दिग्गजों को राजनीतिक उलटफेर का सामना करना पड़ा।

  • 1977 के चुनावों में जनता पार्टी के बैनर तले चार दलों ने कुल 295 सीटों पर विजय प्राप्त की। इंदिरा गांधी की अगुवाई वाली कांग्रेस महज 154 सीटों पर सिमटकर रह गई। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने।
  • 1989 के चुनाव में वीपी सिंह के नेतृत्व वाले जद ने 143 सीटों पर विजय प्राप्त की। भाजपा को 85 और कम्युनिस्टों को करीब 50 सीटें मिलीं। कांग्रेस को 197 सीटें मिलने के बावजूद वह सत्ता से बाहर हो गई।

रशीद किदवई
(वरिष्ठ राजनीतिक पत्रकार, स्तंभकार और कई पुस्तकों के लेखक हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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