विकास के तमाम दावों के बावजूद भारत अभी गरीबी और भुखमरी जैसी बुनियादी समस्याओं की जकड़बंदी से बाहर नहीं निकल सका है। साल 2019 के ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) की रिपोर्ट ने एक बार फिर इसकी पु्ष्टि की है। रिपोर्ट के अनुसार भारत 117 देशों की सूची में 102वें स्थान पर है, जबकि पांच साल पहले वह 55 वें स्थान पर था। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में भर पेट भोजन न पाने वालों की संख्या घटने की बजाय तेजी से बढऩे लगी है। जीएचआई की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में भूख की स्थिति बेहद गंभीर है। भारत एशिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था है और दक्षिण एशिया की सबसे बड़ी, लेकिन ग्लोबल हंगर इंडेक्स में यह दक्षिण एशिया में भी सबसे नीचे है। पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल के लोग भी पोषण के मामले में भारतीयों से आगे हैं। ब्रिक्स देशों में भी भारत इस मामले में सबसे नीचे है। पाकिस्तान इस सूची में 94वें नंबर पर है, जबकि बांग्लादेश 88वें, नेपाल 73वें और श्रीलंका 66वें नंबर पर है। ग्लोबल हंगर इंडेक्स में दुनिया के तमाम देशों के खान-पान की स्थितियों का आकलन किया जाता है।
मसलन लोगों को किस तरह का खाद्य पदार्थ मिल रहा है, उसकी मात्रा कितनी है, गुणवत्ता कैसी है और उसमें कमियां क्या हैं/ जलवायु परिवर्तन का भी भोजन की गुणवत्ता पर गहरा असर देखा जा रहा है। अनाज के पोषक तत्व गायब होते जा रहे हैं। जीएचआई की रिपोर्ट पूरी दुनिया के लिए इशारा कर रही है कि भले ही साल 2000 के बाद दुनिया में भूख के मोर्चे पर कुछ सुधार हुआ हो लेकिन इस समस्या को पूरी तरह समाप्त करने में काफी लंबा रास्ता तय किया जाना बाकी है। एक ओर हमारे-आपके घर में रात का बचा हुआ खाना रोज सुबह बासी समझकर फेंक दिया जाता है, दूसरी ओर हमारे आस-पास ही कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें दिन में एक वक्त का खाना तक नसीब नहीं होता और वे दिनोंदिन भूख से मर रहे हैं। कमोबेश हर विकसित और विकासशील देश की यही कहानी है। दुनिया में पैदा किए जाने वाले खाद्य पदार्थ में से करीब आधा हर साल सड़ जाता है। अपने देश की बात करे तो यहां भी केंद्र और राज्य सरकारें खाद्य सुरक्षा और भुखमरी में कमी के लिए तमाम योजनाएं चला रही हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इनके खास परिणाम नजर नहीं आ रहे हैं।
इन योजनाओं पर अरबों रुपये खर्च किए जा रहे हैं मगर इनका पूरा लाभ गरीबों तक नहीं पहुंच पाता। यही वजह है कि बड़े पैमाने पर लोगों को खाना नसीब नहीं हो रहा है जबकि सस्ता अनाज देने के वादे पर वोट दशकों से मांगे जा रहे हैं। एक तरफ खुद को विश्व की सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था बताने की आत्ममुग्धता, दूसरी तरफ गरीबी-भुखमरी का कलंक – भारत की यह विरोधाभासी छवि बाहर किसी को भी सोच में डाल देती है। बुलेट ट्रेन का सपना संजोते इस देश ने दूसरे देशों के उपग्रह अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने की क्षमता तो अर्जित कर ली पर भुखमरी के अभिशाप से वह मुक्त नहीं हो सका। सच कहा जाए तो देश में भुखमरी मिटाने पर जितना धन खर्च हुआ वह लोगों को संसाधन मुहैया कराने पर खर्च होता तो आज स्थिति कुछ और होती। केंद्र सरकार के हर बजट का बड़ा भाग आर्थिक व सामाजिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के उत्थान के लिए बंटता है लेकिन उसके अपेक्षित परिणाम देखने को नहीं मिलते। ऐसा लगता है कि प्रयासों में या तो प्रतिबद्धता नहीं है या उनकी दिशा ही गलत है।
सच्चाई यह है कि आज तमाम नीतियां समाज के एक छोटे से वर्ग के हित में ही बन रही हैं जिनका लाभ उठाकर यह वर्ग लगातार आगे बढ़ रहा है, जबकि कमजोर लोग वहीं के वहीं पड़े हैं। इस तरह देश दो भागों में बंट गया है। सत्ताधारी तबका समृद्ध वर्गों की चमक-दमक दिखाकर भारत के विकास की कहानी प्रचारित कर रहा है। एक छोटे से वर्ग की तरक्की के आधार पर विकसित भारत की चर्चा पूरी दुनिया में होती है। लेकि न जिधर भुखमरी और अविकास का अंधेरा है, देश के उस हिस्से का कोई नामलेवा भी नहीं है। सरकार ने निर्धनता उन्मूलन के लिए जो योजनाएं चलाई हैं उनका मकसद गरीबों को किसी तरह जीवित रखना है, उनके रोजी-रोजगार के लिए स्थायी संसाधन विकसित करना नहीं। लेकिन अभी तो इन योजनाओं के बजट में भी कटौती हो रही है, जबकि जरूरत इन्हें भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की थी। सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को ही लें। यह गरीबों को सस्ते दर पर अनाज उपलब्ध कराने के लिए बनी है, लेकिन आज देश भर में करीब दो करोड़ फर्जी कार्ड बने हुए हैं।
जिनके जरिए पीडीएस का अनाज जरूरतमंदों तक पहुंचने की बजाय किसी और की ही झोली में पहुंच रहा है। इस अनाज की बड़े पैमाने पर कालाबाजारी पहले भी हो रही थी, आज भी हो रही है। मनरेगा में भी अनियमितता की खबरें सुनाई पड़ती रही हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि भारत में भारी असमानता व्याप्त हो गई है। असमानता पर जारी अंतिम आंकड़े के अनुसार सन 2017 में भारत में उपजी कुल संपत्ति का 73 फीसदी हिस्सा देश के एक फीसदी सबसे अमीर लोगों के पास गया। अमीरों के पास संपत्ति इकट्ठा होने का सबसे बड़ा नुकसान इसका अनुत्पादक होकर अर्थतंत्र से बाहर हो जाना है। यह न तो उत्पादन में कोई योगदान करती है, न ही इससे विकास को गति मिल पाती है। सरकार को अपनी कामयाबी का ढोल पीटने की बजाय बुनियादी जवाबदेही पर ध्यान देना चाहिए और ऐसे उपाय करने चाहिए कि समाज का सबसे कमजोर वर्ग उत्पादन प्रक्रिया का हिस्सा बन सके । भुखमरी, कुपोषण अविकास आज भी भारत की एक कड़वी सच्चाई है, जिसे स्वीकार करने और युद्ध स्तर पर इसका सामना करने की जरूरत है।
रवि शंकर
(लेखक पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)