वामपंथियों की आंख के तारे अब राहुल के प्यारे

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भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता कन्हैया कुमार 28 सितंबर को यानी शहीद-ए-आजम भगत सिंह के जन्मदिन पर कांग्रेस में शामिल हो गए। कांग्रेस नेता राहुल गांधी ही उन्हें पार्टी में लेकर आए हैं। उनके साथ ही गुजरात के दलित कार्यकर्ता और विधायक जिग्नेश मेवानी भी कांग्रेसी हो गए हैं। बिहार में अपना जनाधार खो चुकी कांग्रेस के पास राज्य में कोई बड़ा चेहरा नहीं है। ऐसे में वह कन्हैया कुमार में भविष्य का नेता देख रही है? या लेट से सेंटर आने के बाद कन्हैया वह सब कर सकेंगे, जो वो करना चाहते हैं। दिल्ली की जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ का नेतृत्व कर सुर्खियों में आए कन्हैया से कांग्रेस को या उम्मीदें हैं? कन्हैया कांग्रेस में क्यों: वरिष्ठ पत्रकार अरविंद मोहन कहते हैं कि सीपीआई में किसी के लिए कोई बड़ी संभावना नहीं बची है। ऐसे में कोई युवा नेता अगर राजनीति में करियर बनाना चाहता है तो उसे परेशानी होगी। इसलिए कन्हैया भी अपने लिए नए विकल्प तलाश रहे थे। वो कहते हैं कि सीपीआई भी कन्हैया को बढ़ाने में रुचि नहीं ले रही थी। पिछले चुनाव में जब गठबंधन बढिय़ा बन गया था, लेकिन उनकी पार्टी ने उन्हें प्रमोट नहीं किया। चुनाव के दौरान कन्हैया ने जो टूर शुरू किया था उसे भी पार्टी लीडरशिप ने रुकवा दिया था। दरअसल, उनके सामने कोई रास्ता ही नहीं था। उनकी अपनी पार्टी सीपीआई फरवरी में उनके खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित कर चुकी है।

पार्टी के पटना ऑफिस में कन्हैया ने 1 दिसंबर 2020 को कार्यालय सचिव इंदुभूषण वर्मा के साथ मारपीट की थी। उस समय हैदराबाद में सीपीआई नेशनल काउंसिल की बैठक चल रही थी। दरअसल, बेगूसराय जिला काउंसिल की बैठक होनी थी। इसके लिए ही कन्हैया अपने समर्थकों के साथ पार्टी दतर पहुंचे थे। किसी कारण से बैठक स्थगित कर दी गई। इसकी सूचना न देने को लेकर कन्हैया नाराज थे। इस पर कन्हैया समर्थकों ने वर्मा के साथ बदसलूकी की। तब हैदराबाद में कन्हैया के खिलाफ निंदा प्रस्ताव पारित हुआ था। यहीं से कन्हैया का सीपीआई से मोहभंग हो गया। पिछले काफी समय से कन्हैया के कांग्रेस जॉइन करने की खबरें चल रही थीं। पिछले हते सीपीआई महासचिव डी. राजा ने उनसे प्रेस कॉन्फ्रेंस कर अफवाहों को खारिज करने को कहा था। दिल्ली में पार्टी के दतर में केंद्रीय नेता उनका इंतजार कर रहे थे, पर कन्हैया गए नहीं। पार्टी नेताओं के मैसेज और फोन कॉल्स का भी जवाब नहीं दिया। कन्हैया ने इस संबंध में कुछ नहीं कहा है। सूत्रों का कहना है कि सीपीआई के कुछ नेता कन्हैया के संपर्क में थे। कन्हैया ने उन्हें दो टूक कह दिया है कि वे सीपीआई के स्टेट चीफ बनना चाहते हैं। साथ ही चुनाव समिति का चेयरमैन बनना चाहते हैं। ताकि प्रत्याशियों का सिलेशन वह करें। सीपीआई के नेताओं का कहना है कि कोई भी नेता इस तरह की मांग नहीं कर सकता।

यह पार्टी अपने लोगों पर फैसले खुद लेती है। जिम्मेदारी भी पार्टी की सर्वोच्च बॉडी ही तय करती है। अगर कन्हैया की कोई महत्वाकांक्षा है तो उसे टॉप लीडरशिप से बात करना चाहिए। सीपीआई ने कन्हैया को 2019 के लोकसभा चुनाव में बेगूसराय सीट से भाजपा के गिरिराज सिंह के खिलाफ उतारा था। इस चुनाव में कन्हैया 4 लाख से अधिक वोटों से हारे थे। कन्हैया ने भीड़ को तो खींचा पर जीत नहीं पाए, इस वजह से पार्टी उन्हें कोई बड़ी जिम्मेदारी देने में हिचक रही है। पार्टी की नेशनल काउंसिल की मीटिंग में 2 अटूबर को कन्हैया पर फैसला हो सकता है। हालांकि, अरविंद मोहन कहते हैं कि कन्हैया ने बेगूसराय का चुनाव बहुत अच्छा लड़ा। उनके सामने राजद के अब्दुल बारी सिद्धिकी जैसे नेता भी थे। इसके बाद भी वो दूसरे नंबर पर रहे। ऐसे में कन्हैया को नए विकल्प तलाशने पड़े। कांग्रेस को लाभ: बिहार में जदयू और राजद जैसी क्षेत्रीय पार्टियों की बात करें या भाजपा-कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टियों की, सभी पार्टियों में दूसरी लाइन के नेता आगे आ रहे हैं। राजद में तो तेजस्वी ने कमान संभाल ही ली है। लोक जनशति पार्टी का नेतृत्व चिराग पासवान के पास है। जदयू के नीतीश पहले ही कह चुके हैं कि अगला चुनाव नहीं लड़ेंगे। भाजपा ने भी सुशील कुमार मोदी को मुख्य जिम्मेदारी से हटाकर संकेत साफ कर रखे हैं।

ऐसे में कांग्रेस के पास कोई युवा नेता नहीं है, जो लंबी दूरी का घोड़ा बन सके। उसे कन्हैया में संभावनाएं नजर आ रही हैं, जो लंबे समय में राज्य स्तर पर पार्टी को मजबूती दे सकता है। बिहार में जितनी जरूरत कांग्रेस को कन्हैया की है, उतनी ही जरूरत कन्हैया को कांग्रेस की भी है। कन्हैया के लिए कांग्रेस अच्छा विकल्प: कन्हैया ने 2019 लोकसभा चुनाव बेगूसराय से लड़ा। गठबंधन की अनदेखी से उन्हें करारी हार का मुंह देखना पड़ा। रिजल्ट की समीक्षा में कन्हैया के सलाहकारों का कहना था कि सीपीआई से राजनीति की शुरुआत सही फैसला नहीं था। राजद ने तेजस्वी को उतारकर कन्हैया की मुश्किलें और बढ़ा दी थीं। कन्हैया की राजनीति भाजपा-विरोध पर आधारित है। जेएनयू के नारेबाजी कांड ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई। ऐसे में वे भाजपा में जा नहीं सकते। संसदीय राजनीति के लिए क्षेत्रीय पार्टियां सही नहीं हैं। इस वजह से उन्हें राष्ट्रीय पार्टी की जरूरत है। कांग्रेस के अलावा फिलहाल उनके सामने कोई मजबूत विकल्प नहीं था। बिहार की बात करें तो कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मदन मोहन झा का कार्यकाल समाप्त हो चुका है। हाईकमान बुजुर्ग नेताओं को अलग करना चाहता है। चिराग-तेजस्वी जिस तरह से नीतीश सरकार पर हमले बोल रहे हैं, उतनी ताकत से हमले बोलने वाला कांग्रेस के पास कोई नहीं है।

कांग्रेस में शामिल होने के बाद ही कन्हैया राज्य में बड़ी ताकत बन सकेंगे। कांग्रेस रिवाइव करेगी: बिहार में लंबे समय तक पत्रकारिता करने वाले नागेंद्र प्रताप कहते हैं कि ये प्रियंका की राजनीति का असर है। अगर कन्हैया जैसे लोग कांग्रेस में आते हैं तो कांग्रेस खुद को रिवाइव कर सकती है। अभी की स्थिति में कांग्रेस इस स्थिति में नहीं है कि वो तेजस्वी को चैलेंज कर सके, ऐसे में वो खुद को मजबूत करने की ही कोशिश करेगी। वहीं, राजद प्रवता प्रेम कुमार मणि कन्हैया के कांग्रेस में शामिल होने में कांग्रेस को कोई फायदा होता नहीं देखते हैं। या जिमेदारी मिलेगी: फिलहाल कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। सितंबर की शुरुआत में सीपीआई की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सबसे युवा सदस्य कन्हैया ने कांग्रेस नेता राहुल गांधी से मुलाकात की थी। तब से ही अटकलों का बाजार गरमा गया था। सूत्रों का कहना है कि फिलहाल कन्हैया को राज्य पर फोकस करने के लिए कहा जा सकता है। राहुल गांधी ने 16 जुलाई को सोशल मीडिया वॉलंटियर्स की बैठक में कहा था, बहुत-से लोग हैं जो भाजपा-संघ से नहीं डरते हैं। वे कांग्रेस के बाहर हैं। अगर राहुल के इस बयान को डीकोड किया जाए तो कन्हैया और जिग्नेश मेवानी जैसे युवाओं को महत्वपूर्ण भूमिका मिल सकती है। अब तक तो पार्टी के युवा चेहरों की आउटगोइंग ही रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव हारने के बाद से कांग्रेस ने ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और सुष्मिता देब जैसे युवा चेहरों को खोया है।

रविंद्र भजनी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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