रिश्ते पुराने-जिम्मेदारी नई

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कई तरह की अटकलबाजी है। जैसे अमित शाह पर गृह मंत्रालय का भार आ गया इसलिए उन्होंने पार्टी अध्यक्ष के नाते भार हल्का करना चाहा। या यह चर्चा कि यह परिवर्तन संघ के कहने से है। यह भी चर्चा कि जेपी नड्डा दिखावे के लिए कार्यकारी अध्यक्ष हैं। सबकुछ अमित शाह ही चलाएंगे। वे ही विधानसभा चुनाव लड़वाएंगे और उन्हीं से सबकुछ तय होगा। इन तमाम बातों का मतलब नहीं है। अमित शाह सरकार में शामिल होंगे तो अध्यक्ष दूसरा बनेगा, यह पहले दिन से नरेंद्र मोदी ने तय किया हुआ था। तभी कैबिनेट में जेपी नड्डा की शपथ नहीं हुई। जेपी नड्डा मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में मंत्री रहते हुए भी संगठन में बने रहे थे। वे संसदीय बोर्ड, केंद्रीय चुनाव समिति, संगठनात्मक मामलों के प्रभारी रहे तो लोकसभा चुनाव में सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रदेश उत्तरप्रदेश के भी प्रभारी थे।

यह सब इसलिए था क्योंकि नरेंद्र मोदी से उनकी केमिस्ट्री पुरानी छात्र राजनीति और उत्तर भारत में पंजाब, हरियाणा, हिमाचल आदि में नरेंद्र मोदी के सक्रिय रहने के दिनों से है। हरियाणा के मनोहर लाल खट्टर और हिमाचल प्रदेश में जेपी नड्डा से नरेंद्र मोदी की पुरानी केमिस्ट्री रही है। निश्चित ही अमित शाह और नरेंद्र मोदी में जैसे रिश्ते रहे हैं वैसे जेपी नड्डा के नहीं रहे हैं। बावजूद इसके नरेंद्र मोदी के लिए अमित शाह की भी उतनी ही उपयोगिता है, जितनी जेपी नड्डा की है। कई लोग सोचते हैं कि अमित शाह जैसा जलवा जेपी नड्डा का नहीं बनेगा। अमित शाह चाणक्य थे जबकि जेपी नड्डा उनकी छत्रछाया में अध्यक्ष की भूमिका िनभाएंगे।

ऐसा नहीं होना है। तब अध्यक्ष की मौजूदा स्थिति में अमित शाह अध्यक्ष बने रह सकते थे। भला कार्यकारी अध्यक्ष बनाने की क्या जरूरत थी? लेकिन नरेंद्र मोदी भला क्यों यह मैसेज बनने दें कि अमित शाह के बिना काम नहीं चल सकता? वे जब गुजरात में मुख्यमंत्री रहे तब भी नरेंद्र मोदी ने हमेशा प्रदेश अध्यक्ष पद में परिवर्तन होने दिया। कोई भी दो पद पर नहीं रहे और वंशानुगत राजनीति न हो, इन दो की जिद नरेंद्र मोदी में शुरू से है। अपनी एकछत्रता में नरेंद्र मोदी की हमेशा यह एप्रोच रही है कि संगठन-सरकार में चेहरे बदलते जाएं। विधायक-सांसद-पदाधिकारी निराकार और बिना जमीनी आधार के बनें और एक सुप्रीम लीडर हमेशा सुप्रीम रहे।

तभी गौर करें कि इस चुनाव के बाद भी नरेंद्र मोदी ने भाजपा में, सत्ता में कैसे मिट्टी को ऊपर-नीचे किया है। लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी, कलराज मिश्र आदि की मार्गदर्शक पीढ़ी रिटायर हो गई है तो शिवराजसिंह चौहान, वसुंधरा राजे, रमनसिंह, येदियुरप्पा (खुद भले अपने को कर्नाटक में चेहरा बनाए हुए हों) हाशिए में स्थायी तौर पर चले गए हैं। वहीं अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, वेकैंया याकि लुटियन दिल्ली से राजनीति करने वाले भी अप्रासंगिक हैं। इनकी जगह लोकसभा के स्पीकर पद के लिए ओम बिड़ला, राज्यसभा में थावरचंद गहलोत नेता व संसदीय कार्य मंत्री प्रहलाद जोशी! और जेपी नड़्डा के दिसंबर तक पूर्णकालिक अध्यक्ष बनने के साथ संगठन में छह वर्षों में बदले हुए तीसरी-चौथी पीढ़ी के चेहरे कमान में मिलेंगे। पार्टी उन हाथों में होगी, जिसमें न चाणक्य कोई बोलेगा और न मीडिया से अपनी हवाबाजी कराता कोई नेता।

और जान लें बिना अमित शाह और बिना चाणक्य के भी नरेंद्र मोदी की सुप्रीम कमान में, जेपी नड्डा के जरिए भाजपा एक के बाद एक चुनाव वैसे ही जीतती जाएगी जैसे पिछले पांच वर्षों में जीतती रही है। ऐसा लिखना बेतुका है लेकिन इससे समझना चाहिए कि चुनाव जीतना नरेंद्र मोदी के सेट फार्मूलों पर है। 2012 के विधानसभा चुनावों से पहले कांग्रेस के कई आला नेता कहते थे कि इस बार मोदी नहीं जीत पाएंगे क्योंकि अमित शाह गुजरात से बाहर हो गए हैं। अमित शाह के मैनेजमेंट के बिना मोदी चुनाव जीत नहीं पाएंगे। अपन उस बात से सहमत नहीं थे। मानना था कि गुजराती मानस नरेंद्र मोदी की कैंपेंनिंग से चुनाव पूर्व छह महीने ऐसे पकना शुरू होता है कि भाजपा मजे से जीतती है।

सो, जेपी नड्डा उतने ही सफल भाजपा अध्यक्ष होंगे जितने अमित शाह हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूरे देश की राजनीति और भाजपा संगठन को सुप्रीम नेता केंद्रित उस ढर्रे में ढाल दिया है, जिसमें संगठनात्मक मशीनरी का उपयोग है लेकिन न वह कैटेलिस्ट है और न उसके विचार या उसके अध्यक्ष के जादू-मंतर का कोई मतलब है।

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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