राष्ट्र, कौम, सभ्यता बनाम व्यक्ति की मौत में क्यों फर्क हुआ करता है। वैसे हम हिंदू पुनर्जन्म में विश्वास रखते हैं और हमारी सभ्यता सनातनी है बावजूद इसके इतिहास की दास्तां में हिंदू का बतौर राष्ट्र, कौम जीना मर-मर कर जीते हुए जीना है। हम स्थायी बदरंगी इतिहास, सनातनी बदरंग अस्तित्व का श्राप लिए हुए हैं। बतौर हिंदू मेरा एक जन्म है, एक मरण है और पाप-पुण्य के साथ पुनर्जन्म की नियति है। पर कौम, सभ्यता से क्योंकि मेरी भी घुट्टी है इसलिए औसत हिंदू को भी मर-मर कर ही जीना है। क्या अर्थ है इस सबका? क्या आप समझ पाए? मोटा अर्थ है हस्ती मिटती नहीं तो बनती भी नहीं। हमें होलिका दहन में चिरंतर जलना ही है, कामदेव, प्रह्लाद, ढूण्ढिका और पूतना की कहानियों से सत्य ढूंढते ही रहना है मगर सत्य की सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकना है। तभी हजारों सालों से हम बदरंग हैं और कथित आजादी के बाद भी बदरंग रहना, बदरंगी होते जाना नियति है। हिंदू मौत से सद्गति पाता है, पुनर्जन्म पा जग उर्फ सृष्टि के मेले को देखने का नए सिरे से मौका पाता है, सत्य-पुण्य जीवन प्राप्त कर सकता है मगर बतौर कौम, बतौर सभ्यता-समाज हम हिंदू हर दशहरा, हर दिवाली, हर होली सत्य विचार लाते हैं लेकिन सत्य सिद्धि के बिना! सोचें क्या होली के रंग, उल्लास में हम हिंदुओं को कुछ नया प्राप्त होता है? उलटे क्या लगता नहीं कि हम सतत अधिक बदरंग, अधिक असत्यगामी होते गए हैं? अभी जो होली गुजरी वह सत्य की विजय, सत्य के रंग, सत्यता का उल्लास, उमंग, विश्वास लिए हुए थी या देश, समाज के बदरंगी होने का, खौफ-असत्य का एक और प्रज्जवलन था?
असत्यका वह दहन था या असत्य में पके-रंगे हुए वक्त में जीने का प्रमाण था? पूछ सकते हैं मैं कैसे विचार मंथन में हूं? दरअसल इस दफा मेरी होली सूतक में थी। चचेरे भाई, कुनबे में सबसे बड़े डॉ. जगदीश व्यास का होली से पहले मौन हार्ट अटैक में शांत होना मुझमें यह विचार बनवा गया कि होली बिना रंग हुई। उनकी मृत्यु ऐसे कैसे हो गई, मौत कैसे बिना बहाने आ गई? हमारे जगदीशजी गजब थे। उन्हें 78 वर्ष की उम्र में भी छटांग बीमारी नहीं थी। न डायबिटीज, न ब्लडप्रेशर, न दिल की बीमारी और न किसी तरह की चिंता। सौ टका फिट और व्यवस्थित दिनचर्या। दोतीन घंटे व्यायाम, योग से लेकर 78वर्ष की उम्र में भी कार, मोटरसाइकिल ड्राइव कर आने-जाने और घर-परिवार के तमाम काम करने के आदी। बिना मोटापे के हाइट अनुसार वजन व बॉडी बिल्डर जैसी काया। मैं उन्हें अपने कुनबे में स्वास्थ्य के साथ 75- 80 साल जीने की परंपरा का प्रतिनिधि मानता रहा था और अपने आपको, मेरी हमउम्र के भाई-भतीजों की बीमारियों, जीवनचर्या के चलते हुए सोचा करता था कि जगदीशजी इतने स्वस्थ हैं कि उनसे यमराज को बहाना नहीं है जबकि हम और हमारे बाद की नई पीढ़ी कम उम्र में ही कितनी बीमारियों के बहाने बनवा दे रही है! बहरहाल जगदीशजी बिना कष्ट के जैसे शांत हुए और उस पर सोचते हुए होली व सूतक पर विचार किया तो निष्कर्ष बना कि जो शरीर बिना बहाने, भरपूर जीवन जी कर प्राण वायु लेना बंद करता है उस पर भला शोक, सूतक मानना क्यों?
फिर क्यों भी मेरी या औसत हिंदू की जिंदगी के होलाष्टा वक्त का अशुभ होना तब क्या मतलब रखता है जब देश, कौम ही बेरंग है? सोचें सन् 2020 की होली और उसके वक्त पर। कैसे मनाई आपने होली? देश ने होली? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह यानि राष्ट्र-राज्य ने होली? क्या असत्य जला? क्या सत्य व्यवहार, सत्य वचन कही गूंजता मिल रहा है? क्या दिल्ली की हिंसा का सत्य समझ आया? क्या समाज का सत्य समझ आया? क्या आर्थिकी सत्य व्यवहार पाए हुए है? क्या सरकार का सत्य समझ आया? क्या देश के चाल, चेहरे, चरित्र के मौजूदा वक्त में सत्य पा रहे हैं? दिल पर हाथ रख सचमुच यदि आप भारत की आज की दशा पर गौर करें तो यमराज को भारत में कितने बहाने, कितनी बीमारियों, कितनी जर्जर अवस्था के कारक आज दिख रहे होंगे? मैं इसके लिए मोदीशाह को कतई जिम्मेवार नहीं ठहराऊंगा। जैसा मैने ऊपर लिखा हम हिंदुओं की वृति, प्रवृत्ति, निवृति में ही जब हस्ती मिटती नहीं तो बनती नहीं वाली नियति है तो दो-चार लोगों पर ठीकरा फोडऩे का क्या मतलब है? जैसे एक औसत हिंदू हैं वैसे मोदी-शाह भी हैं। एक औसत हिंदू जैसे मुंगेरीलाल के सपने, तमाम मुगालतों, अंधविश्वासों, जादू-टोनों, चिंताओ में, खौफ, बीमारियों में जीता है वैसे हिंदुओं के सत्ताधारी भी तो जीते हैं। जब कौम स्वस्थ-जिंदादिल नहीं तो नियंता और व्यवस्था भला कैसे स्वस्थ और जिंदादिल हो सकती है! इसलिए बुनियादी पेंच कौम, राष्ट्र, समाज के डीएनए का बदरंग होना है।
यदि डीएनए बेरंग हो, रंगहीन हो तो उनमें रंग भरा जा सकता है लेकिन जब बदरंग है और डर व असत्यता के कालेपन में ही जीना है तो रंग कैसे बनेंगे, कैसे भरेंगे? फिर भले होली के बहाने कितनी ही बार रंगों से खेल लिया जाए। एक दिन भले रंगों के साथ कितना ही खेल लिया जाए, उल्लास दिखला दिया जाए अगले दिन तो फिर झूठ, डर, पाप के स्याह, काले जीवन को जीना है। हिंदू बनाम मुस्लिम के बदरंग नैरेटिव में सांस लेना है, देश को भटकना-भटकाना है, आर्थिकी का जर्जर होना है, धर्म की पोंगापंथी फैलना है, समाज का नीचतम, निम्नतम होते जाना है। कह सकते हैं मैं निगेटिव, नकारात्मक विचारों में भटक रहा हूं। पर आज के संदर्भ में ही जरा अपने आप विचार करें कि भारत, भारत का हिंदू, भारत का समाज, भारत की आर्थिकी आज क्या रंग लिए हुए है? पिछले चार सालों से लक्ष्मीजी की बिना चंचलता के जैसे दीपावली मनाई है वैसे क्या गुजरी होली रंगहीन, बेरंग और बिना उमंग, उत्साह, उल्लास के नहीं मनी? रंगों का, रंगों की छटा का कौन सा इंद्रधनुष आपके आगे, देश के आगे है जिस आप गद्गद् भाव सोचते हुए कर्म को, सत्य को प्रेरित हों? मैं कई बार सोचता हूं, हम हिंदुओं की परंपरा में क्यों कर पुण्य के, निर्भीकता के, सत्य के क्षणिक टोटे हैं और जीवन को खौफ, पाप, असत्य में जीने की दैनंदिनी व्यवहार है? साल में 364 दिन लालच, बेईमानी, पाप में जीवन जीएंगें और एक दिन संगम में डुबकी लगा पाप मिटा लेंगे!
हरिशंकर व्यास
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)