राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद अदालत से नहीं, मध्यस्थता से हल हो, हमारे सर्वोच्च न्यायालय की इस पहल का मैंने हार्दिक स्वागत किया था, क्योंकि 1990-92 में यह विवाद मध्यस्थता के चलते ही हल होने के कगार पर था। लेकिन आज यह सुनकर कि वे तीन मध्यस्थ खुद सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्त कर दिए हैं और उन्हें दो महिने की मोहलत दे दी है तो मैं थोड़ा परेशान हो गया।
बेचारे मध्यस्थों की इज्जत दांव पर लग गई है और उनकी मध्यस्थता सफल होगी कि नहीं, यह सवाल भी खड़ा हो गया है। पहला सवाल तो यह कि क्या अदालत ने याचिकाकर्त्ताओं से इन मध्यस्थों के बारे में सहमति लेकर इन्हें नियुक्त किया है? यदि नहीं तो वे इन्हें महत्व क्यों देंगे ? यदि उनकी सहमति ले ली भी गई हो तो भी दूसरा सवाल यह है कि मंदिर और मस्जिद का विवाद क्या उस सिर्फ पौने तीन एकड़ जमीन की मल्कियित का विवाद है?
यदि वे तीनों किसी हल पर सहमत हो भी जाएं तो भी हिंदुओं और मुसलमानों के बड़े संगठन और नेता क्या उनकी बात मान लेंगे ? तीनों मध्यस्थों को क्या किन्हीं बड़े हिंदू और मुस्लिम संगठनों का प्रतिनिधित्व प्राप्त है? तीन में से दो मध्यस्थ तो ऐसे हैं, जिनका नाम ही लोगों ने पहली बार सुना है? माना यह जा सकता है कि ये तीनों मध्यस्थ सर्वोच्च न्यायालय का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।
यदि ऐसा है तो अदालत बताए (कम से कम इन मध्यस्थों को) कि उसके दिमाग में इस विवाद को हल करने के क्या-क्या विकल्प हैं? यदि वे मध्यस्थ खाली हाथ जाएंगे तो उनकी खाली हाथ ही लौटने का डर ज्यादा रहेगा। यह वह समय होगा, जब चुनावी माहौल चरम पर होगा। जाहिर है, अदालत कोई फैसला उस समय देकर अपने गले में पत्थर नहीं बांधना चाहेगी।
याने यह मामला फिर टल गया। यहां मुझे सबसे ज्यादा हैरानी मोदी सरकार की लकवाग्रस्त स्थिति पर है। यदि चंद्रशेखर और नरसिंहराव की सरकारें इस मामले में जबर्दस्त पहल कर सकती थीं तो मंदिरवाली पार्टी भाजपा का यह नेता खर्राटे क्यों खींच रहा है और उसने अपने रथ की लगाम अदालत के हाथ में क्यों थमा दी है?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार है)