रणछोर विपक्ष

0
194

राष्ट्रपति महात्मा गांधी की जयंती भी दलगत राजनीति का शिकार हो गई। यूपी विधानसभा में इस अवसर पर सतत 36 घंटे विकास से जुड़े मुद्दों पर चर्चा होनी थी। एक तरह से योगी सरकार का यह अभिनव संकल्प था। लक्ष्य था- सभी दलों के माननीय जुटें और अपने दृष्टिकोण से सदन को लाभान्वित करें। पर अफसोस यह कवायद भी एक तरफा साबित हुई। विपक्ष के बिना लोकतंत्र में किसी चर्चा का भला क्या अर्थ निकल सकता है, यह समझना कठिन नहीं है। यह ठीक है कि दलीय प्रतिबद्धताएं होती हैं और उसके अपने सरोकार भी। लेकिन गांधी जयंती पर तो कम से कम इससे बचा जा सकता था। वो भी 150वीं जयंती। पूरी दुनिया में इस अवसर को मौजूदा परिप्रेक्ष्य के लिहाज से बड़ी संजीदगी से लिया गया।

हिंसक होड़ और साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षाओं के मकडज़ाल में उलझली मानवता के वजूद को ही जब खतरा पैदा हो गया है, तब बापू के विचार और उनका दर्शन अंधेरे के दीये की तरह प्रकाश फैलता है। पर अपने यहां ही, और गांधी जयंती पर गैर सत्ताधारी दलों ने ना जानें क्या सोचकर सतत चर्चा का हिस्से बनने से इनकार कर दिया। हालांकि इस निर्णय में ऊहापोह के भी दर्शन हुए। सपा ने अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के उसी दिन के कार्यक्रम का आश्रय लेकर असमर्थता जतायी। बसपा ने इसे फिजूलखर्ची बताया। हां, कांग्रेस जरूर ऐसी पार्टी रही जिसने खुले तौर पर कहा, वे आयोजन का इसलिए बहिष्कार करते हैं कि भाजपा, बापू के रास्ते पर ना चलने वाली पार्टी है। वैसे इन सभी पार्टियों के कुछ बागी सदस्यों ने जरूर चर्चा में हिस्सा लिया।

चौकाने वाली बात ये भी रही कि रायबरेली सदर की कांग्रेस विधायक अदिति सिंह ने शाम के सत्र में हिस्सा लिया जबकि दिन में पार्टी की जनाक्रोश पद यात्रा से किनारा कर लिया। उल्लेखनीय इसलिए कि उस यात्रा में राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी भी शरीक हुई थीं। समझा जाता है कि सोनिया के गढ़ की यह आखिरी उम्मीद भी आने वाले वक्त में कायम रहेगी कुछ कहा नहीं जा सकता। हालांकि उन्हें अब वाई श्रेणी की सुरक्षा प्रदान की जा रही है। इस सबके बीच मूल बात यह है कि विपक्ष के प्रति बापू जयंती के बहिष्कार को लेकर लोगों में नकारात्मक संदेश गया है। यह आम धारणा है कि पार्टियां अपने कार्यक्रमों को अंजाम देतीं, फिर भी समय निकालकर चर्चा में हिस्सा ले सकती थीं और अपने क्षेत्र विशेष के हालात को लेकर सत्तारूढ़ दल को घेर सकती थीं। जो तर्क इन दलों के बाहर थे, वो सदन के भीतर ज्यादा मौजूद और प्रासंगिक होते। तब वाकई यह आयोजन सार्थक होता। विपक्ष की गैर मौजूदगी से सतत विकास चर्चा औपचारिकता मात्र रह गई और बापू की जयंती भी खटास से भर गई। इस मौके पर यह तो माकूल ना था।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here