अगर सरकारी सिस्टम में सरकारी कंपनी ही डिफाल्टर होने की कगारों पर पहुंचेंगी और निजी क्षेत्र की कंपनियां माल बनाकर निकल जाएंगी तो ये दोष कंपनियों का नहीं बल्कि सरकार का है। आला अफसर ये हालात पैदा कर देते हैं कि हर साल घाटा दर घाटा इस तरह पेश कर दिया जाता है कि पिछली बार से इस बार सुधार है।।
अगर भारत के नौ रईसों के पास देश की आधी जनता के बराबर धन है तो अंदाजा लगाईए कि सरकारों की नीतियों का असल लाभ मिल किसे रहा है? अगर ये रईस हर घंटे इतना कमा ले रहे हैं जितना कोई शहर भी नहीं कमा पाता तो फिर सोचिये कि अमीर व गरीब के बीच की खाई कितनी गहरी होती जा रही है? अगर सरकार के सेहत हमकमें जैसे भी मुकेश अंबानी की कमाई के आगे पानी भर रहे हैं तो फिर ये मानने में क्या हर्ज है कि कारोबारी सरकार के और सरकार कारोबारियों को? अगर अंतर बढ़ता ही जा रहा है तो फिर भारत जैसे देश में मोदी जैसी सरकारें जनकल्याण के दावे किस बिना पर कर रही हैं? अगर योजनाएं गरीबों के लिए होता और हर साल इस आंकड़े को बढ़ाने वाली की फौज बढ़ती ही जाती ? कमाल तो ये भी देखिए कि जिनती सरकारी कंपनियां है वो बैठती जा रही हैं और निजी क्षेत्र की कंपनयां उसी क्षेत्र में तिरंगा लहरा रही हैं यानी बम-बम कर रही हैं। पहले टेलीकाम के क्षेत्र में और अब बीमा के क्षेत्र का अगर आंकलन किया जाए तो साफ झलकता है कि सरकारी बीमा कंपनियां बीमार हो चली हैं और नीजी बूम कर रही हैं। आखिर ऐसा हो क्यों रहा है? क्या सरकार ऐसी ही नीतियां जानबूझकर बना रही है?
मोदी सरकार एक स्कीम लेकर आई थी फसल बीमा योजना। सोचिए स्कीम सरकार की और फायदा उठा ले गई निजी कंपनियां। एक साल में 3 हजार करोड़ के फायदे में रहीं। वहीं सरकारी बीमा कंपनियों को घर से 4085 करोड़ देना होगा। ये हालत तो तब है जब फसल बीमा की पालिसी बाजार में नहीं बिकती। ये काम बैंकों से कराया जा रहा है और उन्हें कहा गया है कि वो अपनों को ये लाभ पहुंचाएं। निजी कंपनियों ने बस इसी का फायदा उठाया और बैंकों से सांठगांठ कर मुनाफा मोटा कर लिया। क्या सरकार को नहीं देखना चाहिए था कि सरकारी बैंक होते हुए भी निजी कंपनियां बीमा का सागा धन क्यों लेकर भाग जाती हैं? बीमा नियामक आयोग की रिपोर्ट ही कहती है कि 11 निजी कंपनियों ने 11095 करोड़ का प्रीमियम वसूला। दावे के मुताबिक उन्हें भुगतान करना है केवल 8831 करोड़ का। जबकि सरकारी कंपनियों ने वसूले 13411 करोड़ और भुगतान करना पड़ा 17,496 करोड़। यानी घाटा ही घाटा। आईसीसी लोम्बार्ड जैसी कंपनी हजार करोड़ लेकर मैदान में डटी है। इसके अलावा रिलांयस जनरल को 706 करोड़। बजाय एलियांज को 687 करोड़ व एचडीएफसी को 429 करोड़ का।
खेल बस यहीं सामने आता है। निजी कंपनियों पर क्लेम भुगतान का दवाब नहीं होता और सरकारी को दूहने वाली मशीन ही समझ लिया गया है। तमाम तरह के राजनीतिक दवाब भी इन कंपनियों को झेलने पड़ते हैं। फिर झेलते-झेलते एक दिन ये कंपनियां डूबने लगती हैं और सरकारी सिस्टम के झंडाबरदार दूसरों पर तीर चलाकर साफ बच निकलते है। अगर सरकारी सिस्टम में सरकारी कंपनी ही डिफाल्टर होने की कगारों पर पहुंचेंगी और निजी क्षेत्र की कंपनियां माल बनाकर निकल जाएंगी तो ये दोष कंपनियों का नहीं बल्कि सरकार का है। आला अफसर ये हालात पैदा कर देते हैं कि हर साल घाटा दर घाटा इस तरह पेश कर दिया जाता है कि पिछली बार से इस बारो सुधार है। पर ऐसा होता है कहां? हां दिखाकर इतिश्री कर ली जाती है। तो फिर मनमोहन व मोदी के राज में अंतर क्या रहा ?