मौन घना-मोदी पर तना

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नरेंद्र मोदी को जीताने का हल्ला है तो उतना ही घना मौन निश्चय मोदी को हराने का भी है। इसमें किसका पलड़ा भारी रहेगा यह 23 मई को मालूम होगा। बावजूद इसके अपना मानना है कि 23 मई की शाम नरेंद्र मोदी अनिवार्यतः 2014 और 2019 के नतीजों के फर्क पर गौर करते हुए जरूर सोचेंगे कि ऐसा क्या पाप किया जो जनादेश नफरत से इतना पिचका! नफरत फिलहाल वोट डालते वक्त मुखर याकि प्रकट नहीं है। उसका शोर नहीं है। शोर हर, हर मोदी का है। मोदी की भक्ति गूंज रही है। इस भक्ति के कई रूप हैं। कुछ भक्तों में नरेंद्र मोदी की छप्पन इंची छाती का शक्ति पाठ है। कईयों के लिए वे देश के खातिर मजबूरी हैं। कुछ भक्त नरेंद्र मोदी की विभिन्न लीलाओं के मुरीद हैं। फिर औसत हिंदू की मूर्खताओं में जीने के चलते भी मोदी की दिवानगी है।

ये सब मतदान के अंध मोदी वोट हैं। इनमें भाव है, इनका मनोविज्ञान यह विश्वास लिए हुए है कि नरेंद्र मोदी जीत रहे हैं। इनके दिल-दिमाग में मोदी सरकार फिर से बन चुकी है। मतलब मोदी को दुबारा प्रधानमंत्री हुआ मान लिया है। न ये दूसरी बात सुनना चाहेंगे और न इनकी कोई राय बदल सकता है।

ऐसी मोदी भक्ति 2014 में नहीं थी। तब नरेंद्र मोदी को वोट देने वाले भक्त नहीं थे, बल्कि गुस्से में खदबदाए वे लोग थे जो मनमोहन सरकार के अनुभवों से घायल थे। तब नरेंद्र मोदी विकल्प थे मनमोहन सरकार को हटाने के। अपना मानना है कि वे तब भी मुस्लिम आबादी में विकल्प नहीं थे लेकिन मुसलमान और कांग्रेस दोनों तब वजह थे बाकी लोगों में नरेंद्र मोदी को विकल्प बनवाने के। मोदी विकल्प का चेहरा थे तो उससे उत्साह संचारित था। तब नरेंद्र मोदी सर्वजनीय उत्साह के केंद्र बिंदु थे। उसमें आदिवासी थे तो यादव के नौजवान चेहरे भी थे। दलित भी शामिल थे। वह एक ऐसा हिंदू उत्साह था, जिसमें जातियां, जातीय समीकरण दबा हुआ था।

मतलब 2014 में नरेंद्र मोदी का चुनाव जीतना लोगों के उत्साह में वोट डालने की बदौलत था। कईयों की उम्मीदे थी तो कईयों में नए प्रयोग की चाहना थी।

क्या वैसी स्थिति 2019 में आज है? क्या उम्मीदों-उत्साह का माहौल है? अपना मानना है कि मोदी के भक्त भी मजबूरी में वोट डाल रहे हैं। बिना उम्मीद के वोट डाल रहे हैं। पांच साल के अनुभव के बाद बनियों में यदि आज भी नरेंद्र मोदी को ही वोट देने का भाव है तो वह उम्मीद विशेष के चलते नहीं है, बल्कि इस मजबूरी में है कि मोदी को न दें तो किसको दें? दूसरा है कौन? 2014 में सोच यह नहीं थी कि मोदी मजबूरी है। न अंध भक्ति थी। जो था वह उत्साह, जोश, उम्मीद के साथ यह निश्चय लिए हुए था कि सत्यानाशी मनमोहन सरकार- कांग्रेस को हराना है। उसमें भाजपा के परंपरागत वोटों के अलावा मध्यवर्गीय, फ्लोटिंग वोटों का निश्चय मनमोहन सरकार के खिलाफ गुस्से के चलते था।

मतलब 2014 में मोदी को डला वोट उत्साह, जोश, उम्मीद सहित इस निश्चय में था कि मनमोहन सरकार को हटाना है।

आज वह निश्चय भाजपा विरोधी परंपरागत वोटों के साथ मुसलमान, ईसाई, दलित, आदिवासी, यादव के उन तमाम वोटों में है जो अपने-अपने कारणों से जातीय, सामुदायिक, लोकल तकलीफ, जलालत से चुपचाप मोदी के खिलाफ है।

हां, 2019 में वोट की ताकत में निश्चयात्मक फैसला किया हुआ वोटर वह है जो नरेंद्र मोदी से नफरत करता है। सवाल है कि मोदी मजबूरी की भक्ति और मोदी हटाओ की नफरत की शिद्दत व सघनता का कैसा फर्क है? मतलब भक्त लोग मोदी को जिताने के लिए मरे जा रहे हैं या मोदी से नफरत करने वाले लोग ज्यादा वोट डाल रहे हैं?

जवाब तय करना आसान नहीं है। मीडिया कवरेज और शोरगुल में मोदी, मोदी की बात छाई हुई है। यह सुनाई भी नहीं देगा कि नरेंद्र मोदी को हराने वाला जिद्दी वोट समूह भी बना हुआ है। मुझे सुबह एक सुधी संपादक ने कहा कि मोदी-शाह ने ऐसे ढेरो रिपोर्टर- मीडियाकर्मी पैदा किए हैं जो रिपोर्टिंग करते हुए बता रहे हैं कि भाजपा ओड़िशा में 16 सीट जीत रही है या पश्चिम बंगाल में 20 सीट जीत रही है। मतलब रिपोर्टिंग, हल्ला भाजपा की घटती सीटों का नहीं है, बल्कि नए प्रदेशों में बढ़ती सीट का है। मोदी-शाह का प्रबंधन है, जिसमें फोकस यह बनवाना है कि देखो सीट कितनी बढ़ रही है या देखो इस जनसभा में कैसी भीड़ उमड़ पड़ी है। देखो सर्वत्र मोदी, मोदी का हल्ला है!

मैं इस हल्ले में मोदी-शाह के साथ धोखा होता बूझ रहा हूं। चार चरणों के मतदान का मोटा निष्कर्ष है कि भक्त जहां भक्ति में डूबे हुए हैं वहीं मोदी को हटाने की जिद्द पाले, उनसे नफरत रखने वाले चुपचाप ज्यादा वोट डाल रहे हैं। किसी भी प्रदेश में घूम लें, राजस्थान और मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश सभी तरफ मोदी-शाह और उनके भक्तों का शोर एक जैसा है कि वे तो जीत रहे हैं। साध्वी प्रज्ञा तो जीती जिताई हैं। साध्वी प्रज्ञा का उदाहरण इसलिए लिया है क्योंकि जो भोपाल में होगा वह इंदौर में दिखेगा तो जोधपुर, चंडीगढ़, रांची में भी होगा। इन तमाम जगह मोदी-मोदी का शोर भारी है। कांग्रेस या उसके उम्मीदवारों का हल्ला है ही नहीं। भोपाल में दिग्विजय सिंह का टीवी चैनलों, अखबारों में चेहरा उतना नहीं दिख रहा है, जितना साध्वी प्रज्ञा का दिखा है। क्या इससे मान लिया जाए कि दिग्विजय सिंह का हारना तय है?

अपना मानना है कि दिग्विजय सिंह वैसे ही चुपचाप चुनाव लड़ रहे हैं जैसे अशोक गहलोत और उनके बेटे ने जोधपुर में चुपचाप लड़ा है। जोधपुर में मोदी की विशाल जनसभा के हल्ले के बावजूद गहलोत का विश्वास डिगा नहीं। उनका उन वोटों पर फोकस बना रहा, जो लोकल, जातीय, राष्ट्रीय मूड में पांच सालों में मोदी राज के खिलाफ चुपचाप पके हैं। मतलब मौन मतदाता, जिन्होंने मन ही मन ठानी हुई है कि मोदी को हराना है। जैसे भोपाल को लें। इस महानगर में भी परंपरागत भाजपा विरोधी वोट पहले भी रहे हैं तो कोई चार लाख मुसलमान, एक लाख ईसाई, फिर दलित, आदिवासी आबादी के जो वोट हैं तो उनमें दिग्विजय सिंह का मैसेज बनाने का इतना भर काम होना है कि वोट जरूर डालंे। हालांकि इनका निश्चय पहले से ही बना हुआ है। इन्हें भरोसा इतना भर चाहिए कि मोदी के उम्मीदवार को हराने के लिए उसके आगे दमदार उम्मीदवार है या नहीं!

सोचें कि राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, अशोक गहलोत, मायावती-अखिलेश यादव, ममता बनर्जी के लिए काम ज्यादा मुश्किल नहीं है। मोदी-शाह के मुकाबले में विरोधी नेताओं को इतना भर करना है कि जो मोदी के खिलाफ वोट बने हैं उन्हें विश्वास दिलाना है कि उनका उम्मीदवार मोदी को हरा सकता है। मोदी ने यदि अपने और जनता के बीच से पार्टी और उम्मीदवार को खत्म किया है तो उन्होंने अपने विरोधियों के लिए इससे काम आसान बनाया है। विरोधियों को इतना भर मैसेज बनाना है मोदी के खिलाफ वोट डालने जाना है। मोदी के खिलाफ वोट डालने वाला यह नहीं सोच रहा है कि तब कौन प्रधानमंत्री बनेगा? मोदी विरोधी हिंदू, मुसलमान, ईसाई, दलित, आदिवासी, यादव आदि सब एक भाव में हैं और वह यह है कि मोदी को हराना है। अपने बूथ पर 95 प्रतिशत वोटिंग करवानी है। इन पर इस बात का असर नहीं है कि कौन कितना खर्च कर रहा है या किसका कैसा हल्ला है!

हरिशंकर व्यास
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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