मोदी हैं तो क्या एक साथ चुनाव भी मुमकिन हैं?

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देश के सारे राजनीतिक दल 19 जून को मिलकर इस मुद्दे पर विचार करेंगे कि क्या लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने चाहिए ? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आग्रह है कि वे एक साथ होने चाहिए। यह बात मैं पिछले कई वर्षों से कह रहा हूं। कई बार मैंने प्रधानमंत्रियों और चुनाव आयोगों से भी यह आग्रह किया लेकिन यह आग्रह चिकने घड़े पर पानी की तरह फिसल गया। इसके कई कारण बताए गए। पहला तो यही कि यदि समस्त विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव की एक ही तारीख तय हुई तो कइयों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है। कई विधानसभाओं या लोकसभा की भी उसकी पांच साला अवधि के पहले ही भंग होना पड़ेगा। सभी चुने हुए प्रतिनिधि चाहते हैं कि कम से कम पांच साल तक उनकी चौधराहट कायम रहे। इस दुविधा का संतोषजनक समाधान खोज निकालना कठिन नहीं है।

दूसरी समस्या इससे भी ज्यादा जटिल है। वह यह कि कई विधानसभाएं और स्वयं लोकसभा भी कई बार पांच साल के पहले ही भंग हो जाती हैं। यदि वे अलग-अलग समय पर भंग हों तब क्या होगा? यदि उन्हें तब तक भंग रखा जाए और उनके चुनाव नहीं करवाए जाएं, जब तक कि वह पंचवर्षीय तारीख न आ जाए तो सरकारें कैसे चलेंगी ? क्या उन राज्यों में तब तक राज्यपाल और देश में राष्ट्रपति का शासन चलेगा ?

यह घोर अलोकतांत्रिक काम होगा। इसीलिए लोग कहते हैं कि विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ नहीं हो सकते। इसका समाधान मेरे पास है। यदि किसी विधानसभा या लोकसभा में कोई सरकार अल्पमत में आ जाए और गिर जाए तो ऐसे में वह तब तक इस्तीफा न दे जब तक कि कोई नई सरकार न आ जाए। याने विधानसभा या लोकसभा को पांच साल के पहले भंग करने की जरुरत ही नहीं पड़ेगी।

सरकारें चाहे पांच साल के पहले भंग होती रहें लेकिन विधानसभाएं और लोकसभाएं पांच साल तक जस की तस टिकी रहें। इस मौके पर शायद हमें हमारे दल-बदल कानून पर भी पुनर्विचार करना पड़े। यदि हम अपनी इस पुरानी व्यवस्था में यह बुनियादी परिवर्तन कर सकें तो हमारे अनाप-शनाप चुनावी खर्च पर रोक लगेगी, भ्रष्टाचार घटेगा, नेता लोग सतत चलनेवाले चुनावी दंगल से बाज आएंगे और अपने समय और शक्ति का प्रयोग शासन चलाने में करेंगे।

डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं

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