मोदी को भी नेहरु जैसा धोखा !

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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सन 2020 की गर्मियों में क्या वैसा ही महसूस कर रहे हैं, जैसा अक्टूबर 1962 में तब के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने महसूस किया था? कहना मुश्किल है क्योंकि वक्त वैसा नहीं है और दोनों व्यक्तियों में मूलभूत अंदर है। नेहरू अपेक्षाकृत ज्यादा संवेदनशील थे और आज की राजनीति में संवेदनशीलता बेहद दुर्लभ गुण है। वह नेहरू की संवेदना थी, जो चीन का धोखा नहीं बरदाश्त कर सकी। महान लेनिन की पत्नी क्रुप्सकाया ने लिखा है कि ‘लेनिन कुछ दिन और जिंदा रहते, अगर कुछ कम संवेदनशील होते’। संवेदनशील होना जानलेना हो जाता है।

सो, संभव है कि नेहरू की तरह संवेदनशील होकर मोदी चीन के धोखे के बारे में नहीं सोच रहे हों पर यह तो सोच ही रहे होंगे कि उन्होंने चीन के बारे में क्या धारणा बना रखी थी और चीन कैसा निकला! हां, यह हकीकत है कि देश के पहले प्रधानमंत्री ने चीन पर जितना भरोसा किया उतना ही भरोसा मौजूदा प्रधानमंत्री ने भी किया और बदले में उन्हें भी धोखा ही मिला है। इससे चीन की नीयत और भारत के हुक्मरानों की नियति का भी पता चलता है।

नरेंद्र मोदी ने चीन पर बहुत भरोसा किया था। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते उन्होंने कम से कम चार बार चीन का दौरा किया। बतौर प्रधानमंत्री वे पांच बार चीन का दौरा कर चुके हैं और दो बार चीन के राष्ट्रपति शी जिनफिंग की भारत में मेजबानी की है। साबरमती के रिवरफ्रंट पर शी और मोदी की झूले में झूलती हुई तस्वीर और वीडियो अभी बिल्कुल ताजा है। उससे भी ताजा है तमिलनाडु के ममलापुरम में शी की मेजबानी करने वाली मोदी की तस्वीर। ‘वुहान स्पिरिट’ भी बहुत पुरानी बात नहीं है। भारत और दुनिया में इन दिनों वुहान की चर्चा कोरोना वायरस फैलाने वाली फैक्टरी के तौर पर हो रही है पर कुछ समय पहले भारत में वुहान की चर्चा उस ‘वुहान स्पिरिट’ की वजह से हो रही थी, जो वहां से लेकर प्रधानमंत्री मोदी लौटे थे। वुहान में प्रधानमंत्री मोदी और राष्ट्रपति शी की पहली अनौपचारिक बैठक हुई थी। उस बैठक के बाद माना जा रहा था कि भारत और चीन के बीच का दशकों पुराना सीमा विवाद अब कोई मायने नहीं रखता है। भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल जब अपने चीनी समकक्ष के साथ सीमा विवाद पर चर्चा करते थे तो लगता था कि यह सिर्फ औपचारिकता है।

पर अब अचानक तस्वीर बदल गई है। अब दोनों तरफ बंदूकें तनी हैं। सीमा पर दोनों देशों की फौजें आमने-सामने हैं तो भारत में सरकार इस बात के लिए कमर कस रही है कि चीन के सामानों का बहिष्कार कर आर्थिक रूप से उसकी कमर तोड़ देनी है। हालांकि इसमें कामयाबी कितनी मिलेगी, यह नहीं कहा जा सकता है पर यह तय है कि स्वदेशी अपनाने और आत्मनिर्भर बनने की जो मौजूदा मुहिम शुरू हुई है वह चीन से मोहभंग के कारण ही है। चीन से अपनी नाराजगी दिखाने के लिए ही प्रधानमंत्री मोदी ने यह कदम उठाने का फैसला किया है। ऐसा कहने या मानने का आधार यह है कि पिछले कुछ दिनों में चीन के साथ भारत के संबंधों में तनाव बढ़ने के अलावा और कुछ ऐसा नहीं बदला है, जिसे आर्थिक नीतियों में इतने बड़े बदलाव के साथ जोड़ा जा सके।

असल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन से काफी उम्मीदें पाली थीं। जिस समय वे गुजरात में मुख्यमंत्री रहते भारत के तख्त पर बैठने के मंसूबे बना रहे थे उस समय उन्होंने चीन की चार बार यात्रा की। इसका घोषित मकसद यह था कि चीन से गुजरात में निवेश लाना है ताकि गुजरात को विकास का एक मॉडल बनाया जाए। गुजरात विकास का मॉडल नहीं बन पाया, यह कोरोना वायरस के इस संकट में साफ हो गया है पर प्रचार के दम पर 2014 के चुनाव में इसे पूरे देश में बेच दिया गया था। बहरहाल, यह नरेंद्र मोदी का प्रयास था, जो गुजरात में हर साल होने वाले वाइब्रेंट गुजरात सम्मेलन में चीनी कंपनियों की भागीदारी साल दर साल बढ़ने लगी और 2007 के बाद से लगभग हर साल बड़ी संख्या में चीनी कंपनियों ने गुजरात सरकार के साथ ढेर सारे एमओयू पर दस्तखत किए। चीन की अनेक कंपनियों ने गुजरात में निवेश किया।

गुजरात में टाटा मोटर्स की नैनो कार का प्रोजेक्ट भले नहीं चल पाया पर ‘मॉरिस गराज’ नाम की जिस ब्रिटिश कंपनी ने एमजी हेक्टर नाम से कार लांच की है उसका संयंत्र सफल हो रहा है। यह नाम भर की ब्रिटिश कंपनी है। इसमें अधिकतर निवेश चीन का है। चीन की एसएआईसी मोटर कॉर्प ने 2017 में गुजरात में दो हजार करोड़ रुपए की लागत से अपना संयंत्र शुरू किया और 2019 में वहां से बन कर एमजी हेक्टर गाड़ी बाजार में आ गई। इसके पीछे पीछे चीन की अनेक ऑटोमोबाइल कंपनियां भारत में निवेश कर रही हैं और यह अंदाजा लगाया जा रहा है कि जल्दी ही जापान, दक्षिण कोरिया, जर्मनी और अमेरिकी कंपनियों को पीछे छोड़ कर चीन की ऑटोमोबाइल कंपनियां भारत के बाजार पर कब्जा कर लेंगी। यह चीन के प्रति नरेंद्र मोदी के सद्भाव की वजह से होगा।

इसी तरह चीन की एक बड़ी स्टील कंपनी ने गुजरात के धोलेरा में 21 हजार करोड़ रुपए का संयंत्र लगाने का ऐलान किया है। इस संयंत्र में उत्पादन शुरू हो जाएगा तो यह देश की सबसे बड़ी स्टील कंपनी बन सकती है। चीन की कंपनियां गुजरात, महाराष्ट्र में टेक्सटाइल और औद्योगिक पार्क बनाने की तैयारी कर रही हैं। संचार से लेकर बुनियादी ढांचे के विकास तक के काम में चीन की कंपनियों को मंजूरी देकर उन्हें शामिल किया गया है। असल में यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ग्रैंड विजन का हिस्सा था, जो वे चीन से दोस्ती बढ़ा रहे थे और वहां से निवेश आमंत्रित कर रहे थे। वे निवेश के साथ साथ असल में चीन के साथ दोस्ती के जरिए भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों, वामपंथी विचार वाले बौद्धिकों और सेकुलर जमात को भी यह दिखाना चाहते थे कि वे भले उनको गाली दें पर चीन उनका दोस्त है।

चीन ने भारत में निवेश किया क्योंकि वह दुनिया की महाशक्ति बनने की उसकी रणनीति का हिस्सा है। वह दुनिया भर के देशों में निवेश करके, कर्ज देकर या मदद देकर उनके यहां घुसपैठ कर रहा है। भारत में निवेश उसकी इस रणनीति के अनुकूल था, सो उसने किया और अब कोरोना वायरस के संकट के बाद बांह मरोड़ना उसकी रणनीति के अनुकूल है तो सीमा पर लड़ने की तैयारी कर बैठा है। तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ठगा हुआ महसूस कर रहे होंगे। उनको लग रहा होगा कि चीन ने उन्हें धोखा दिया है। सरकार खुल कर कह नहीं रही है पर यह हकीकत है कि चीन ने सीमा पर यथास्थिति बदली है। उसने गैर विवादित इलाके में घुसपैठ की है और युद्ध के भारी हथियार इकट्ठा किए हैं। हालात चिंताजनक हैं तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से बात करनी पड़ी है। इसके अलावा मोदी भी क्या कर सकते हैं! तीन हजार करोड़ वाली वह मूर्ति भी तो वापस नहीं कर सकते, जो चीनी तकनीक से बनी है तो जवाब में समर्थक ‘डिलीट चाइनीज ऐप्स’ का बच्चों वाला खेल खेल रहे हैं।

अजीत दि्वेदी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं ये उनके निजी विचार हैं)

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