कोरोना वायरस का संकट अब ऐसे दौर में पहुंच गया है, जहां आम लोगों की बचत चूक गई है, उनके संसाधन खत्म हो गए हैं, नौकरी-कामधंधे सब छूट गए हैं और उनका धीरज भी अब जवाब दे रहा है। शराब की लाइन में खड़े कुछ हजार या लाख लोगों की संख्या से इस बात का अंदाजा नहीं लगाया जाना चाहिए कि लोगों के पास पैसे हैं। जैसा कि भाजपा के प्रवक्तानुमा एक टीवी एंकर ने ट्विट करके कहा कि लोगों के पास घर वापसी के लिए ट्रेन की टिकट खरीदने के पैसे नहीं है पर शराब के लिए पैसे हैं। यह सरासर बेवकूफी है, जो ट्रेनों से लौट रहे प्रवासी मजदूरों की तुलना शराब की लाइन में खड़े लोगों से की जाए। पर क्या किया जा सकता है, कोरोना काल में यह निष्कर्ष निकल रहा है कि महामारी मूर्खता को भी बढ़ाती है।
बहरहाल, अब सरकार की भूमिका मेडिकल सुविधाएं जुटाने से ज्यादा लोक कल्याण राज्य के तौर पर काम करने की दिख रही है। सरकार को किसी तरह से लोगों की मदद करनी होगी। उनके राशन का बंदोबस्त करना होगा और उनके हाथ में पैसे भी पहुंचाने होंगे तभी उनका जीवन भी बचेगा और देश की अर्थव्यवस्था भी बचेगी। पैसे रोक लेने की या आम लोगों की जेब से पैसे निकालने की योजना बहुत घातक साबित हो सकती है। अफसोस की बात है कि भारत की केंद्रीय सरकार और राज्यों की सरकारें यहीं गलती कर रही हैं।
केंद्र सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ा दिया। इससे सरकार को एक लाख 60 हजार करोड़ रुपए की अतिरिक्त आमदनी होगी। पर यह आंकड़ा ऐसे समय का है, जब देश में सौ फीसदी उपभोग हो रहा हो। लॉकडाउन के समय में 70 फीसदी उपभोग घटा हुआ था। लॉकडाउन में छूट के बावजूद 50 फीसदी उपभोग भी शायद ही हो। तभी सरकार अनुमान के मुताबिक पैसा नहीं इकट्ठा कर सकती है। पर अगर वह उत्पाद शुल्क बढ़ाने की बजाय पेट्रोल, डीजल के दामों में क्रमशः दस और 13 रुपए की छूट दे देती तो आम लोगों के हाथ में तत्काल पैसे बचने शुरू हो जाते। पेट्रोल और डीजल दोनों के दाम 60 रुपए लीटर से नीचे आ जाता। कई दशक बाद ऐसा होता। फिर लोग बचे हुए पैसे का दूसरा इस्तेमाल कर सकते थे।
पर ऐसा करने की बजाय केंद्र सरकार ने उत्पाद शुल्क बढ़ाया और दिल्ली की सरकार ने भी वैल्यू एडेड टैक्स यानी वैट बढ़ा दिया। दिल्ली सरकार के इस फैसले से राजधानी में डीजल की कीमत सात रुपए लीटर बढ़ गई है। इसका असर जरूरी सामानों की कीमत पर भी पड़ेगी। इसी तरह दिल्ली सरकार ने शराब के दाम में 70 फीसदी इजाफा कर दिया है। आंध्र प्रदेश की सरकार ने भी शराब के दाम बढ़ाए हैं। चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकारें सबको लग रहा है कि आम लोगों के पास अब भी पैसा है और उसकी जेब से पैसा निकाल लेना चाहिए। यह सही है कि सरकार के पास संसाधन कम हुए हैं और टैक्स के पैसे नहीं मिलने से उसे दिक्कत हुई है। पर आम लोगों की मुश्किलें सरकार से बहुत ज्यादा बड़ी हैं।
इसी बीच महाराष्ट्र की सरकार ने फैसला किया है कि वह विकास के सभी कामों को अगले एक साल के लिए रोक देगी। यानी बुनियादी ढांचे के विकास पर कोई खर्च नहीं किया जाएगा। यह भी बिना सिर पैर का फैसला है। क्योंकि विकास के काम होने से बाजार में नकदी की तरलता बढ़ती है। इस तरह के काम रोकने की बजाय सरकार को चाहिए कि वह कहीं से भी पैसे का जुगाड़ करके बुनियादी ढांचे के विकास के काम में लगाए ताकि लोगों के हाथ में पैसे पहुंचे। एक बार यह चक्र शुरू होगा तो मजदूर से लेकर जरूरी सामान की आपूर्ति करने वाले तक पैसा पहुंचेगा। इस चक्र का चलते रहना कोरोना संकट के बाद भी देश और राज्यों की अर्थव्यवस्था को ठीक रखने में मदद करेगा। आर्थिकी के जानकार मान रहे हैं कि मेडिकल ढांचा सुधारने और दूसरे बुनियादी ढांचे में निवेश के जरिए ही कोरोना के बाद आर्थिकी को चलाए रखा जा सकेगा।
तभी यह कहा जा रहा है कि सरकार अपना खर्च बढ़ाए। वह कहां से पैसे का जुगाड़ करेगी यह देखना उसका काम है। जैसे अमेरिका अप्रैल-जून की तिमाही में कोविड-19 से लड़ने के लिए तीन हजार अरब डॉलर यानी भारत के कुल जीडीपी के बराबर पैसा उधार ले रहा है। वह पहले ही अपने जीडीपी के दस फीसदी के बराबर का पैकेज घोषित कर चुका है। जापान जीडीपी का 20 फीसदी खर्च करने वाला है। यूरोपीय संघ और ब्रिटेन भी बड़ा पैकेज ला चुके हैं और आगे भी लाने वाले हैं। इनके मुकाबले भारत ने अभी तक जीडीपी के एक फीसदी के बराबर या उससे भी कम का पैकेज घोषित किया है और ऊपर से कई तरह के जुगाड़ करके पैसे इकट्ठा करने का बंदोबस्त कर लिया है।
जब याद दिलाया जा रहा है कि दुनिया के देश इतना खर्च कर रहे हैं तो सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार केवी सुब्रमण्यन का कहना है कि दूसरे देशों से भारत की तुलना करने की जरूरत नहीं है। यह सही है कि दूसरे विकसित देशों की तरह भारत की आर्थिक स्थिति नहीं है और उनकी तरह का बड़ा पैकेज भारत नहीं दे सकता है। लेकिन अगर भारत जीडीपी के पांच फीसदी के बराबर भी खर्च करने का फैसला करे तो वह रकम आठ से दस लाख करोड़ रुपए हो सकती है। दुनिया के दूसरे सभ्य और लोकतांत्रिक देशों की तरह भारत सरकार कम से कम यह तो कर सकती है कि वह लोगों की जेब से पैसा न निकाले। जरूरत की चीजों की कीमत कम रखे और जिन चीजों का इस्तेमाल लोग कर रहे हैं उनके दाम या उन पर शुल्क बढ़ा कर उनकी ज्यादा कीमत न वसूले। अगर सरकार इतना भी कर दे कि शुल्क न बढाए, बुनियादी ढांचे में निवेश बढ़ाए और थोड़े से पैसे लोगों की हाथों में पहुंचाए तो इस संकट के समय में भी लोगों का जीवन आसान हो सकता है।
सुशांत कुमार
(लेखक पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)