अधर्म करने वाले लोगों को जब तक सुख में रहते हैं, तब तक वे धर्म-अधर्म की बात नहीं करते हैं। उन्हें वही सही लगता है, जो वे करते हैं। लेकिन, जब ये लोग संकट में फंसता है, तब इन्हें धर्म की याद आती है। ये बात कर्ण वध के प्रसंग से समझ सकते हैं। जानिए ये प्रसंग… महाभारत युद्ध में एक दिन अर्जुन और कर्ण का आमना-सामना हुआ, उनका युद्ध चल रहा था। तभी कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धंस गया। कर्ण रथ से उतरा और रथ का पहिया निकालने की कोशिश करने लगा। उस समय अर्जुन ने अपने धनुष पर बाण चढ़ा रखा था। कर्ण ने अर्जुन से कहा कि एक निहत्थे यौद्धा पर बाण नहीं चला सकते, ये कायरों का काम है। तुम जैसे यौद्धा को ये काम शोभा नहीं देता है। पहले मुझे मेरे रथ का पहिया निकालने दो। इसके बाद मैं तुमसे युद्ध करूंगा। श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी थे।
वे कर्ण की बातें सुनकर बोलें कि जब कोई अधर्मी संकट में फंसता है, तब ही उसे धर्म याद आता है। श्रीकृष्ण ने कर्ण से कहा कि जब द्युत क्रीड़ा में कपट हो रहा था, जब द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था, तब किसी ने भी धर्म की बात नहीं की थी। वनवास के बाद पांडवों को उनका राज्य लौटाना धर्म था, लेकिन ये नहीं किया गया। 16 साल के अकेले अभिमन्यु को अनेक यौद्धाओं ने घेरकर मार डाला, ये भी अधर्म ही था। उस समय कर्ण का धर्म कहां था? श्रीकृष्ण की ये बातें सुनकर कर्ण निराश हो गया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम मत रुको और बाण चलाओ। कर्ण को धर्म की बात करने का अधिकार नहीं है। इसने हमेशा अधर्म का ही साथ दिया है। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के कहने पर कर्ण की ओर बाण छोड़ दिया। कर्ण ने हर बार दुर्योधन के अधार्मिक कामों में सहयोग किया था, इसी वजह से वह अर्जुन के हाथों मारा गया।